, हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय सूरदास ने और महाराष्ट्र में ज्ञानदेव, नामदेव और तुकाराम ने इस भक्तिमूलक आनंद की अजस्र वर्षा कर दी। इससे हिंदुओं को प्रतिरोध की एक ऐसी निष्क्रिय शक्ति प्राप्त हुई, जिसने उन्हें भय की उपेक्षा, अत्याचारों का सहन और प्राणांतक कष्टों को सहते हुए भी जीवन धारण करना सिखाया। इस प्रकार जो जाति नैराश्य के गर्त में पड़कर जीवन की आशा छोड़ चुकी थी, उसने वह सत्त्व संचय कर लिया जिसने क्षीण होने का नाम न लिया। भगवान् के दिव्य सौंदर्य से उदय होनेवाला श्रानंदातिरेक निष्क्रिय शक्ति का ही रूप धारण करके नहीं रह गया। उसने दैत्य-विनाशिनी क्रियमाण शक्ति का रूप भी देखा । तुलसीदास ने पुरानी कहानी में इसी अनंत शक्ति से संयुक्त राम को अपने अमोव वाण का संधान किए हुए अन्यायी रावण के विरुद्ध खड़ा दिखाया। भक्त-शिरोमणि समर्थ रामदास ने तो आगे चलकर शिवाजी में वह शक्ति भर दी, जिसने शिवाजी को भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट स्थान दिला दिया । परंतु वैष्णव आंदोलन से भी परिस्थिति को सब आवश्यकताओं की पूर्ति न हुई। घटनाओं के प्रवाह ने जिन दो जातियों को भारत में ला इकट्ठा किया, उनके बीच सार्वत्रिक ५. सम्मिलन विरोध था। विजेता और विजित में स्थिति का कुछ का आयोजन अंतर तो होता ही है, परंतु इन दोनों जातियों के बीच ऐसे धार्मिक विरोध भी थे जो विजेताओं को अधिकाधिक दुर्व्यवहार और अत्याचार करने की प्रेरणा करते थे। मुस्लिम विजय केवल मुस्लिम राजा की विजय न थी, बल्कि मुहम्मद की विजय भी थी। इस्लाम की सेना केवल अपने राजा के राज्य-विस्तार के उद्देश्य से नहीं लड़ रही थी, बल्कि 'दीन' के प्रसार के लिये भी। अतएव यह दो जातियों का ही युद्ध न था, दो धर्मों का युद्ध भी था। हिंदू मूर्तिपूजक था, मुसलमान मूर्ति-भंजक । हिंदू बहुदेववादी था पर
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