जाता है-लताएँ, संज्ञाएँ। उ-ऊ को भी "उन्' नहीं होता; केवल
विभक्ति को 'एँ' हो जाता है-वधुएँ, बहुएँ । यानी बहू' के 'ऊ'
का हो गया । यह सीधा रास्ता । जब कि 'बहुओं में 'उ' के
का लोप हो गया, स्पष्ट श्रुति के अभाव में, तो हिन्दी ने कहा,
अब 'उव्' कहीं होगा ही नहीं, जहाँ श्रुत हो सकता है 'व', वहाँ
भी न होगा; या वहाँ भी 'व' का लोप होगा। हिन्दी सदा व्यापकता
की ओर गयी है। इसीलिए 'बहुएँ' होता है, 'बहुवें' नहीं। असल
बात तो यह है कि 'बहुवे' बोलने में भी व्' का उच्चारण त सुन्दर
है, न स्पष्ट । पूर्व में बैठा 'उ' आँख जो दिखा रहा है ! 'कड़वे'
में जैसा स्पष्ट 'व्' है, वैसा बहुवे' में नहीं है; इसीलिए नहीं है।
ओह ! यह सब तो व्याकरण का विषय है! 'विकरण' एक प्रकार
का वर्णागम ही है; यह कहते-कहते यहाँ आ पहुंचे। परन्तु बात काम
की है । 'विकरण' पर विचार हिन्दी व्याकरण में किया नहीं गया है !
जरूरी विषय है। ओं' बड़ा महत्त्वपूर्ण 'विकरण' है। 'लड़कियाँ
जाती हैं में लड़की के आगे 'आँ' विभक्ति है, विकरण नहीं । इस
विभक्ति पर भी विचार नहीं हुआ है। कोई विभक्ति परे न हो, तो
आकारान्त पुल्लिङ्ग (तद्भव) संज्ञा के 'आ' को 'ए' हो जाता है-
'लड़के' । यहाँ 'ए' विभक्ति नहीं है । तत्सम संज्ञाएँ 'आ' को 'ए' नहीं
करतीं-'बहुत से राजा जमा हुए हैं', 'सब के माता-पिता अच्छा ही
सोचते हैं' इत्यादि।
अभी हम प्रकृति-प्रत्यय का विभाजन ही ठीक नहीं कर पाये हैं;
व्याकरण की प्रौढ़ता तो आगे की चीज है। इस तरह 'वणगिम' की
चर्चा संक्षेप में की गयी। इसी को पल्लवित कर लेना चाहिए।
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२४:हिन्दी-निरुक्त