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२६ : हिन्दी-निरुक्त
 

कैसे गया? उत्तर में निवेदन है कि संसार में धींगामस्ती भी चलती है। कभी-कभी जबर्दस्त गैर-कानूनी कब्जा भी कर बैठते हैं, जो वाद में 'कानन-सम्मत' बना लिया जाता है। इसी तरह एक वर्ण के स्थान पर दूसरा वर्ण भी आ धमकता है। परन्तु 'ग' को 'द' हो जाना तो वैसी बात नहीं है। इन दोनों अक्षरों का स्थान एक नहीं, तो 'प्रयत्न' एक जरूर है-दोनों 'अल्पप्राण' हैं ! इस अल्पप्राणता के कारण ही दोनों में मेल है और इसीलिए एक-दूसरे का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक भारतीय कम्युनिस्ट एक चीनी कम्यूनिस्ट से मेल रखता है। दोनों का प्रयत्न एक ही है न, संसार में किसान-मजदूर का राज्य कायम करना ! सो, स्थान-भेद होने पर भी, प्रयत्न साम्य वर्ण-मैत्री करा देता है । फारसी में ही क्यों, हिन्दी में भी, इसी लिए, 'द' के स्थान पर 'ग' को बैठते आप देख सकते हैं-'पद-पग' । आगे 'वर्ण-विकार' के प्रकरण में आप को इस तरह के बहुत अधिक उदाहरण मिलेंगे। सो, 'आगम' का 'आमद हो गया-वर्ण-व्यत्यय हो कर । फारसी में 'द' अक्षर बहुत जबर्दस्त जान पड़ता है। तभी तो 'ह' जैसे महाप्राण वर्ण को हटा कर उसकी जगह आ वैठता है । 'हस्त' का 'दस्त' हो जाता है ! कहते हैं, फारसी बहुत मीठी भाषा है । शायद इसीलिए 'ह' की महाप्राणता या कर्कशता उसे पसन्द न हो और इसीलिए 'हस्त' को 'दस्त बना दिया हो! हिन्दी का 'फाटक' शब्द 'कपाट' के वर्ण-व्यत्यय से जान पड़ता है। 'क' आदि से उठकर अन्त में जा बैठा और 'पा' आगे बढ़ कर जोरदार (महाप्राण) बन बैठा- का 'फ्' हो गया। इस तरह वर्ण-विकार के सहयोग से यहाँ वर्ण-व्यत्यय ने काम किया नव- निर्माण का। साधारण 'कपाट' से 'फाटक' के अर्थ में विशेषता है-बहुत बड़े- बड़े किवाड़ों (कपाटों) को 'फाटक' कहते हैं । यह अर्थ-गत महाकायता ही कदाचित् शब्द की महाप्राणता में कारण है । वह अर्थ सूचित करने के लिए ही कदाचित् 'फ' बन गया है। प्रायः देखा जाता है कि जिन शब्दों में 'म' है, उन्ही में वर्ण-विपर्याय अधिक होता है। 'म' की मधुरता का यह नाजायज फायदा उठा कर यह गपचौथ मचती है। 'आमद' की तरह हिन्दी में साधारण जन 'अमरूद को 'अरमूद' और 'मतलब' को 'मतबल' बोला करते हैं; परन्तु ये (अरमूद-मतबल आदि) शब्द साहित्य में स्वीकृत नहीं हुए