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६६ : हिन्दी-निरुक्तं
 

भी अपने अलाप्राणों को दूर हटाकर आप चमकता रहता है । 'मुख- 'नख का 'मुहँ-नह' आप देख ही चुके हैं। कभी क, च, ट, त, प, या ग, ज, ड, द, व को भी 'ह' होते देखा है ? यहाँ ह. है ही नहीं। ख, ध आदि में वह है; सो स्पष्ट हो जाता है, अल्पप्राण को मिटा कर ! 'क्रोध' से 'कोह' होता है, 'शोक' का 'सोह' नहीं। 'क्षोभ' का 'छोह' है, पर 'लोभ' का 'लोह' नहीं होता। 'लोह' पहले से ही 'लौह' का तद्भव मौजूद है न ! भ्रम न पैदा हो ! 'शोभन' का 'सोहन' है; तब 'शोधन' का 'सोहन' कैसे वने ? 'बधिर' का 'बहिर' फिर 'आ'-विभक्ति के साथ 'बहिरा' बना; बाद में 'इ' को 'अ' हुआ-बहरा' । ह, प्रायः 'इ' को हटाकर 'अ' रखता है । 'एक-स्थानीय' मित्र है न ! इसीलिए 'भगिनी' से 'बहिनी' बना; फिर 'वहन' हो गया । 'रुधिर' का रुहिर' 'पद्मावत' आदि में देख सकते हैं-'रुहिर भभूका' । 'शफरी' संस्कृत शब्दका 'सहरी' 'कवितावली में है, जिस का अर्थ करने में लोग इधर- उधर के कुलाबे भिड़ाते हैं। 'मेघ' का 'मेह' बहुत प्रसिद्ध है, और 'सौभाग्य' का 'सुहाग', एक विशिष्ट अर्थ में। 'आभीर' का आद्य स्वर ह्रस्व भी हो गया-- 'अहीर' । परन्तु 'अधोर' का 'अहीर' नहीं हुआ; भ्रम बचाने के लिए। 'वधू' का 'वहू' और 'गभीर' का गहरा है। ह ने 'इ' को हटाकर अपना गोत्रीय 'अ' वुला-वसा लिया है। 'भला' का 'हला' हो गया है-'हला शकुन्तला' ! 'भला शकुन्तला, तू ने वह बेसमझी की क्यों ?' 'दधि' के अन्त का स्वर दोर्ष भी हो गया है-'दही' । संस्कृत 'कथ्' धातु कह' बन गयी है। ___मध्य' का 'महँ' बना, जो आगे चलकर में' के रूप में हिन्दी की एक विभक्ति बना। २७-में' और 'पर' ___ इन विभक्तियों के प्रयोग-भेद पर ध्यान देने से भी स्पष्ट है कि 'मध्य' से 'मह' और उस से 'मैं' है। भीतर के लिए में आता है और ऊपर के लिए 'पर' । 'सन्दूक में पुस्तके हैं', 'सन्दुक पर पुस्तकें हैं।' यह 'पर' विभक्ति 'ऊपर' के 'ॐ' को अलग कर के बनी है। 'मध्य' का एक विकास 'माँझ' के रूप में भी हुआ है, जो कविता में आता है। 'कहा' व्रज में 'क्या' के अर्थ में बोला जाता है, जिसका 'ह,' पूरब