कई शाखायें थीं। भारतवर्ष की वर्त्तमान आर्य्य-भाषायें उन्हीं में से, एक न एक से, निकली हैं। विशुद्ध संस्कृत भी इन्हीं भाषाओं के किसी न किसी रूप से परिष्कृत हुई है।
असंस्कृत आर्य्य-भाषायें।
चित्राल और गिलगिट आदि में कुछ ऐसी भाषायें बोली जाती हैं जो आर्य्यों ही की भाषाओं से उत्पन्न हुई हैं। पर वे संस्कृत से सम्बन्ध नहीं रखतीं। संस्कृत से उनका कोई सम्पर्क नहीं मालूम होता। जो लोग इन भाषाओं को बोलते हैं वे पञ्जाब में आकर बसे हुए आर्य्यों की सन्तति नहीं मालूम होते। आर्य्य लोग, दक्षिण की तरफ़ पञ्जाब में आकर, फिर उत्तर की ओर काफ़िरिस्तान, गिलगिट, चित्राल और काश्मीर की उत्तरी तराइयों में नहीं गये। बहुत सम्भव है कि आर्य्यों का जो समूह अपने आदिम स्थान से चलकर दक्षिण की तरफ़ आया था, उसका कुछ अंश अलग होकर, आक्सस नदी के किनारे-किनारे पामीर पहुँचा हो और वहाँ से गिलगिट और चित्राल आदि में बस गया हो। खोवार, बशगली, कलाशा, पशाई, लग़मानी आदि भाषायें या बोलियाँ जो काश्मीर के उत्तरी प्रदेशों में बोली जाती हैं, उनका संस्कृत से कुछ भी लगाव नहीं है। इनमें कुछ साहित्य भी नहीं है। और न इनके लिखने की कोई लिपि ही अलग है। जहाँ तक खोज की गई है उससे यही मालूम होता है कि ये भाषायें संस्कृत से उत्पन्न नहीं हुई। यहाँ संस्कृत से मतलब उस पुरानी संस्कृत से है जिसे पञ्जाब में रहनेवाले आर्य्य बोलते थे।