इसका निर्णय करना कठिन है कि कब से कब तक किस
प्राकृत का प्रचार रहा और प्रत्येक का ठीक-ठीक लक्षण क्या
है। दूसरी तरह की प्राकृत का शुरू-शुरू में कैसा रूप था, यह
भी अच्छी तरह जानने का कोई मार्ग नहीं। अशोक के शिलालेखों में जो प्राकृत पाई जाती है वह शुरू-शुरू की दूसरी
प्राकृत नहीं। वह उस समय की है जब उसे युवावस्था प्राप्त हो
गई थी। फिर, दूसरी प्राकृत का रूपान्तर तीसरी में इतना धीरे-धीरे हुआ कि दोनों के मिलाप के समय की भाषा देखकर यह
बतलाना असम्भव सा है कि कौन भाषा दूसरी के अधिक निकट
है और कौन तीसरी के; परन्तु प्रत्येक प्रकार की प्राकृत के
मुख्य-मुख्य गुण-धर्म्म बतलाना मुश्किल नहीं। प्रारम्भ-काल में
प्राकृत का रूप संयोगात्मक था। व्यजनों के मेल से बने हुए
कर्णकटु शब्दों की उसमें प्रचुरता है। दूसरी अवस्था में उसका
संयोगात्मक रूप तो बना हुआ है, पर कर्णकटुता उसकी कम
हो गई है। यहाँ तक कि पीछे से वह बहुत ही ललित और
श्रुतिमधुर हो गई है। यह बात दूसरे प्रकार की प्राकृत के
पिछले साहित्य से और भी अधिक स्पष्ट है। इस अवस्था में
स्वरों का प्रयोग बहुत बढ़ गया है और व्यञ्जनों का कम हो
गया है। प्राकृत की तीसरी अवस्था में स्वरों की प्रचुरता कम
हो गई है। दो-दो तीन-तीन स्वर, जो एक साथ लगातार
आते थे, उनकी जगह नये-नये संयुक्त स्वर और विभक्तियाँ आने
लगीं। इसका फल यह हुआ कि भाषा का संयोगात्मक रूप
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