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हिन्दी भाषा की उत्पत्ति।

जाता रहा और उसे व्यवच्छेदक रूप प्राप्त हो गया--अर्थात् शब्दों के अंश एक से अधिक होने लगे। एक बात और भी हुई। वह यह कि नये-नये रूपों में संयुक्त व्यजनों के प्रयोग की फिर प्रचुरता बढ़ी।

दूसरे प्रकार की प्राकृत

इस बात का ठीक-ठीक पता नहीं चलता कि शुरू-शुरू में दूसरे प्रकार की प्राकृत एक ही तरह से बोली जाती थी या कई तरह से--अर्थात् उससे सम्बन्ध रखनेवाली कोई प्रान्तिक बोलियाँ भी थीं या नहीं; परन्तु इस बात का पक्का प्रमाण मिलता है कि वैदिक काल की प्राकृत के कई भेद ज़रूर थे। जुदा-जुदा प्रान्तों के लोग उसे जुदा-जुदा तरह से बोलते थे। उसके कई आन्तरिक रूप थे। जब वैदिक समय की प्राकृत के कई भेद थे तब बहुत सम्भव है कि प्रारम्भ-काल में दूसरे प्रकार की प्राकृत के भी कई भेद रहे हों। उस समय इस भाषा का प्रचार सिन्धु नदी से कोसी तक था। वह बहुत दूर-दूर तक बोली जाती थी। अतएव यह सम्भव नहीं कि इस इतने विस्तृत प्रदेश में सब लोग उसे एक ही तरह से बोलते रहे हों। बोली में ज़रूर भेद रहा होगा। ज़रूर वह कई प्रकार से बोली जाती रही होगी। अशोक के समय के शिलालेख और स्तम्भ-लेख ईसा के कोई २५० वर्ष पहले के हैं। वे सब दो प्रकार की प्राकृत में हैं। एक पश्चिमी प्राकृत, दूसरी पूर्वी। यदि उस समय उसके ऐसे दो मुख्य भेद हो गये थे जिनमें अशोक को अपनी आज्ञायें तक लिखने की ज़रूरत पड़ी, तो, बहुत सम्भव है, और