वर्ष में रहा। ठीक समय तो नहीं मालूम, पर लगभग १०००
ईसवी तक प्राकृत सजीव रही। तदनन्तर उसके जीवन का
अन्त आया। उसका प्रचार, प्रयोग सब बन्द हुआ। वह
मृत्यु को प्राप्त हो गई। इस प्राकृत की कई शाखायें थीं--इसके
कई भेद थे। उनके विषय में जो कुछ हम जानते हैं वह प्राकृत
के साहित्य की बदौलत। यदि इस भाषा के ग्रन्थ न होते, और
यदि इसका व्याकरण न बन गया होता तो इससे सम्बन्ध
रखनेवाली बहुत कम बातें मालूम होती। पर खेद इस बात
का है कि प्राकृत के ज़माने में जो भाषायें बोली जाती थीं उनका
हमें यथेष्ट ज्ञान नहीं। साहित्य की भाषा बोल-चाल की भाषा
नहीं हो सकती। प्राकृत-ग्रन्थ जिस भाषा में लिखे गये हैं वह
बोलने की भाषा न थी। बोलने की भाषा को खूब तोड़-मरोड़कर लेखकों ने लिखा है। जो मुहाविरे या जो शब्द उन्हें ग्राम्य,
शिष्टताविघातक, या किसी कारण से अग्राह्य मालुम हुए उनको
उन्होंने छोड़ दिया और मनमानी रचना करके एक बनावटी भाषा
पैदा कर दी। अतएव साहित्य की प्राकृत बोल-चाल की प्राकृत
नहीं। यद्यपि वह बोल-चाल की प्राकृत ही के आधार पर बनी
थी, तथापि दोनों में बहुत अन्तर समझना चाहिए। इस अन्तर
को जान लेना कठिन काम है। साहित्य की प्राकृत, और उस
समय की बोल-चाल की प्राकृत का अन्तर जानने का कोई मार्ग
नहीं। हम सिर्फ इतना ही जानते हैं कि अशोक के समय
में दो तरह की प्राकृत प्रचलित थी--एक पश्चिमी, दूसरी
पूर्वी। इनमें से प्रत्येक के गुण-धर्म जुदा-जुदा हैं--प्रत्येक का
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