भी कई भेद उसके रहे हों, और उस समय के पहले भी उनका
होना असम्भव नहीं। बौद्ध-धर्म्म के प्रचार से इस दूसरी प्राकृत
की बड़ी उन्नति हुई। इस धर्म्म के अध्यक्षों ने अपने धार्म्मिक
ग्रंथ इसी भाषा में लिखे और वक्तृतायें भी इसी भाषा में की।
इससे इसका महत्व बढ़ गया। आजकल यह दूसरी प्राकृत,
पाली भाषा के नाम से प्रसिद्ध है। पाली में प्राकृत का जो
रूप था उसका धीरे-धीरे विकास होता गया क्योंकि भाषायें
वर्द्धनशील और परिवर्तनशील होती हैं। वे स्थिर नहीं रहती।
कुछ समय बाद पाली के मागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री आदि
कई भेद हो गये। आजकल इन्हीं भेदों को "प्राकृत" कहने
का रिवाज हो गया है। पाली को प्रायः कोई प्राकृत नहीं कहता
और न वैदिक समय की बोल-चाल की भाषाओं ही को इस
नाम से उल्लेख करता। प्राकृत कहने से आजकल इन्हीं
मागधी आदि भाषाओं का बोध होता है।
धार्म्मिक और राजनैतिक कारणों से प्राकृत की बड़ी उन्नति
हुई। धार्म्मिक व्याख्यान उसमें दिये गये। धार्म्मिक ग्रन्थ
उसमें लिखे गये। काव्यों और नाटकों में उसका प्रयोग हुआ।
प्राकृत में लिखे गये कितने ही काव्य-ग्रन्थ अब तक इस देश में
विद्यमान हैं और कितने ही धार्म्मिक ग्रन्थ सिंहल और तिब्बत
में अब तक पाये जाते हैं। नाटकों में भी प्राकृत का बहुत
प्रयोग हुआ। प्राकृत के कितने ही व्याकरण बन गये। कोई
एक हज़ार वर्ष से भी अधिक समय तक प्राकृत का प्रभुत्व भारत