बिगड़ते कुछ और ही रूप के हो गये हैं। इनको "अर्द्ध-तत्सम" कह सकते हैं। "तत्सम" शब्दों का स्वभाव "अर्द्ध-तत्सम" होने का है। फल इसका यह हुआ है कि "अर्द्ध-तत्सम"
शब्द धीरे-धीरे इतने बिगड़ गये हैं कि उनका और "तद्भव"
शब्दों का पहचानना मुश्किल हो गया है। दोनों प्रायः एक
ही तरह के हो गये हैं। इस देश के वैयाकरणों ने कुछ शब्दों
को, "देश्य" संज्ञा भी दी है। परन्तु ये शब्द भी प्रायः
संस्कृत ही से निकले हैं; इससे इनको भी "तद्भव" शब्द ही
मानना चाहिए। कुछ द्राविड़ भाषा के भी शब्द परिमार्जित
संस्कृत में आकर मिल गये हैं। उनकी संख्या बहुत कम
है। अधिक संख्या उन्हीं शब्दों की है जो पुरानी संस्कृत से पाये
हैं। यहाँ पुरानी संस्कृत से मतलब संस्कृत की उन पुरानी
शाखाओं से है जो परिमार्जित संस्कृत की जननी नहीं हैं। पुरानी
संस्कृत की जिस शाखा से परिमार्जित संस्कृत निकली है उसे
छोड़कर और शाखाओं से ये शब्द आये हैं। इनकी भी
गिनती (तद्भव) शब्दों में है।
हिन्दी से मतलब यहाँ पर, पूर्वी और पश्चिमी दोनों तरह
की हिन्दी से है। शब्द-विभाग के सम्बन्ध में हिन्दी का भी
ठीक वही हाल है जो संस्कृत का है। अरबी, फ़ारसी, तुर्की,
अँगरेज़ी और द्राविड़ भाषाओं के शब्दों को छोड़कर शेष सारा
शब्द-समूह संस्कृत ही की तरह, तत्सम, अर्द्ध-तत्सम और
तद्भव शब्दों में बँटा हुआ है। हिन्दी में जितने तद्भव शब्द