हैं या तो वे प्रारम्भ की प्राकृतों से आये हैं, या दूसरी शाखा
की प्राकृतों से होते हुए संस्कृत से आये हैं। परन्तु ठीक-ठीक कहाँ से आये हैं, इसके विचार की इस समय ज़रूरत
नहीं। दूसरे दरजे की प्राकृत भाषाओं के ज़माने में चाहे वे
तद्भव रहे हों, चाहे तत्सम; आधुनिक भाषाओं में वे विशुद्ध
तद्भव हैं। क्योंकि आधुनिक भाषायें तीसरे दरजे की प्राकृत
हैँ, और ये सब शब्द दूसरे दरजे की प्राकृतों से आये हैँ।
परन्तु आज-कल के तत्सम और अर्द्ध-तत्सम शब्द प्रायः परिमार्जत संस्कृत से लिये गये हैं। उदाहरण के लिए "आज्ञा"
शब्द को देखिए। वह विशुद्ध संस्कृत शब्द है। पर हिन्दी
में आता है। इससे तत्सम हुआ। इसका अर्द्ध-तत्सम रूप
है "अग्याँ"। इसे बहुधा अपढ़ और अच्छी हिन्दी न जानने-वाले लोग बोलते हैं। इसी का तद्भव शब्द "आना" है । यह
संस्कृत से नहीं, किन्तु दूसरी शाखा की प्राकृत के "आणा"
शब्द का अपभ्रंश है। इसी तरह "राजा" शब्द तत्सम है, "राय"
तद्भव। प्रत्येक शब्द के तत्सम, अर्द्ध-तत्सम और तद्भव रूप
नहीं पाये जाते। किसी के तीनों रूप पाये जाते हैं। किसी
के सिर्फ दो, किसी का सिर्फ एक ही। किसी-किसी शब्द के
तत्सम और तद्भव दोनों रूप हिन्दी में मिलते हैँ। पर अर्थ उनके
जुदा-जुदा हैँ। संस्कृत "वंश" शब्द को देखिए। उसका अर्थ
"कुटुम्ब" भी है और "बाँस" भी। उसके अर्द्ध-तत्सम "वंश"
शब्द का अर्थ तो "कुटुम्ब" है; पर उससे दूसरा अर्थ नहीं
निकलता। वह अर्थ उसके तद्भव शब्द "बाँस" से निकलता है।
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हिन्दी भाषा की उत्पत्ति।