है, दूसरी वह जो पुस्तकों, अख़बारों और सामयिक पुस्तकों में
लिखी जाती है। कुछ अख़बारों के सम्पादक इस दोष को
समझते हैं। इससे वे बहुधा बोल-चाल ही की हिन्दी लिखते
हैं। उपन्यास की कुछ पुस्तकें भी सीधी-सादी भाषा में लिखी
गई हैं। जिन अख़बारों और पुस्तकों की भाषा सरल होती है
उनका प्रचार भी औरों से अधिक होता है। इस बात को जानकर भी लोग क्लिष्ट भाषा लिख कर भाषा-भेद बढ़ाना नहीं
छोड़ते। इसका अफ़सोस है। कोई कारण नहीं कि जब तक
बोल-चाल की भाषा के शब्द मिलें, संस्कृत के कठिन तत्सम
शब्द क्यों लिखे जायँ? 'घर' शब्द क्या बुरा है जो 'गृह'
लिखा जाय? 'कलम' क्या बुरा है जो 'लेखनी' लिखा जाय?
'ऊँचा' क्या बुरा है जो 'उच्च' लिखा जाय? संस्कृत जानना
हम लोगों का ज़रूर कर्तव्य है। पर उसके मेल से अपनी
बोल-चाल की हिन्दी को दुर्बोध करना मुनासिब नहीं। पुस्तकें
लिखने का सिर्फ़ इतना ही मतलब होता है कि जो कुछ उनमें
लिखा गया है वह पढ़नेवालों की समझ में आ जाय। जितने
ही अधिक लोग उन्हें पढ़ेंगे उतना ही अधिक लिखने का मतलब
सिद्ध होगा। तब क्या ज़रूरत है कि भाषा क्लिष्ट करके
पढ़नेवालों की संख्या कम की जाय? जो संस्कृत-भाषा हज़ारों
वर्ष पहले बोली जाती थी उसे मिलाने की कोशिश करके अपनी
भाषा के स्वाभाविक विकास का रोकना बुद्धिमानी का काम
नहीं। स्वतंत्रता सबके लिए एक सी लाभदायक है।
कौन ऐसा आदमी है जिसे स्वतन्त्रता प्यारी न हो? फिर
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हिन्दी भाषा की उत्पत्ति ।