क्यों हिन्दी से संस्कृत की पराधीनता भोग कराई जाय? क्यों
न वह स्वतन्त्र कर दी जाय? संस्कृत, फ़ारसी, अँगरेज़ी
आदि भाषाओं के जो शब्द प्रचलित हो गये हैं उनका प्रयोग
हिन्दी में होना ही चाहिए। वे सब अब हिन्दी के शब्द बन
गये हैं। उनसे घृणा करना उचित नहीं।
डाकृर ग्रियर्सन की राय है कि काशी के कुछ लोग हिन्दी
की क्लिष्टता को बहुत बढ़ा रहे हैं। वहाँ संस्कृत की चर्चा
अधिक है। इस कारण संस्कृत का प्रभाव हिन्दी पर पड़ता
है। काशी में तो किसी-किसी को उच्च भाषा लिखने का
अभिमान है। यह उनकी नादानी है। यदि हिन्दी का
कोई शब्द न मिले तो संस्कृत का शब्द लिखने में हानि नहीं;
पर जान बूझ कर भाषा को उच्च बनाना हिन्दी के पैरों में कुल्हाड़ी
मारना है। जिन भाषाओं से हिन्दी की उत्पत्ति हुई है उनमें
मन के सारे भावों के प्रकाशित करने की शक्ति थी। वह
शक्ति हिन्दी में बनी हुई है। उसका शब्द-समूह बहुत बड़ा
है। पुरानी हिन्दी में उत्तमोत्तम काव्य, अलङ्कार और वेदान्त
के ग्रन्थ भरे पड़े हैं। कोई बात ऐसी नहीं, कोई भाव ऐसा
नहीं, कोई विषय ऐसा नहीं जो विशुद्ध हिन्दी शब्दों में न
लिखा जा सकता हो। तिस पर भी बड़े अफ़सोस के साथ
कहना पड़ता है कि कुछ लोग, कुछ वर्षों से, एक बनावटी
क्लिष्ट भाषा लिखने लगे हैं। पढ़नेवालों की समझ में उनकी
भाषा आवेगी या नहीं, इसकी उन्हें परवा नहीं रहती। सिर्फ़
अपनी विद्वत्ता दिखाने की उन्हें परवा रहती है। बस! कला-