पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/४१६

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नोवात्पत्तिवाद-नोवपाधि तेजा ये सब गुण भोर प्रद्य न प्रादि भिव होने पर भी है वह पविनायो है । इसलिए उम अनम्या में भी उमका प्रात्मां और भगवान् वासदेव हैं । भोर भो देखिये, उनके | विनाय नहीं होता। उस समय टूमरा कोई नहीं शास्त्र में वेदनिन्दा है। "चतुर्यु वेदेषु परं श्रेयोऽतन्या शांडिस | रहता मिर्फ वही (जीव) रहमा है। पन्य ममय भीमे इदं शास्त्रं अधिगतवान्" (शा०यू०मा० ) शाण्डिल्य ने ये मब (द्रष्टव्य ) विभक्त होते हैं। मीनिए जीव उमको चार वेटोंमे परम ये योजाम न कर पाखिर यह शास्त्र देखता नहीं । यतिने यहो कहा है। पुरुप सुपुमिशानमें माम किया। जिस धर्म ग्रन्यमें वैटनिन्दा है, वह भी प्रचेतन नहीं होता, किन्तु पचेतनप्राय होता है, पर्यात् धर्मजिज्ञासके लिए अग्रहपोय है । इस कारणसे भाग. यह अयस्था चैतन्याभाषयगतः नहीं होतो, वरिक यतमतावलम्बियों की जीवोत्पत्तिके विषयमें इस प्रकारको रिपयाभाववशतः ही होती है। जैसे प्रकाश्य यनु के कल्पना अमङ्गत भोर अग्राम है। अभावमें प्रकाशक पदार्थ की यमभिव्यक्ति होती है, उमी कणादक मतसे-पात्मा आगन्तुवा चैतन्य है अथात् | तरह ट्रष्टय के अभाव में दूष्टाको भो पनभिशक्ति होतो स्वतःचेतन नहीं है । निमित्तवगतः उममें चैतन्य नामक | है। अतएव उसके स्वरूप का प्रभाव नहीं होता। वैगे- गुण उत्पन्न होता है। किन्तु सांग्यदर्शनो मतमे प्रात्मा | पिक, न्याय प्रादि दर्शनोंको यह बात सुमद्गत नहीं नित्य चैतन्यरूपी है। इन दोनों विरुद्ध मौको देख है। भीवारमा देखो। कर यह संशय उत्पन्न होता है कि, आत्मा है क्या,चीज | जीवोपाधि (सं० पु० )जोषस्य उपाधिः, तत्। म्वन, और उसका स्वरूप क्या है ? भात्मा क्या धेगेपिकोंके | सुयुति पोर नाग्रत अवस्था ये तीन जीवशी उपाधियाँ • मतानुसार आगन्तुक चैतन्य है? अथवा मायके मतानु ! है। जब सुपुगि दगा किमी वस्तुका मान ही नहीं भार नित्य चैतन्यरूपी है ? साधारण युप्तिम भागन्तुक चैतन्य होता, तब वह उपाधि कैसे हो मकती है। यह मस्य .पाया जाता है। जैसे अग्नि के साथ घटका संबन्ध होने | है, किन्तु रापुनि पयस्या में भी युधि, मन, पहार, पर घट में लगाई उत्पन्न होती है, उसी तरह मनके साथ इन्द्रिय पादिम मस्कारवासित पञानरूप उपाधि रपतो पात्माका सम्बन्ध होनसे प्रात्माम चैतन्यगुण पन होता है। जिस प्रकार वसमें सुगन्धित पुप्यादि बांध कर पोटे है। प्रात्मा नित्य चैतन्यरूपी होनेमे उममें सप्त मूछित | फेंक देने पर भी यत्र सम्पर्ण सुगन्धिको नहीं छोड़ और ग्रहाविष्ट अवस्था में चैतन्य दर्शन रहता। इन | सकता, उमी प्रकार जीवको बुध्यादि मकारवामित अवस्यानोम चैतन्य नहीं रहता. चैतन्यका प्रभाव हो अन्नानरूप उपाधि भो तिरोहित नहीं होती। अतएय जाता है। परन्तु उन अवस्थाओं के बाद यह व्यक्त होता सुपुमि प्रवस्याम भी जीयको उपाधि होतो है । प्रायः है। पारमा कभी चेतन है, कभी अचेतन है, यह देख स्थामें जाग्रत्वामना (मस्कार ) प लिक गरीर (बुद्धि, कर स्थिर होता है कि, पारमा मित्योदित चैतन्य नहीं.. प्रहार, एकादश इन्द्रिय, पञ्चसम्मान, इन पठारह पव. किन्तु भागन्तुक चैतन्य है, यह पूर्व पक्षका सिद्धान्त | यी महित निगगेर) उपाधि है, पर्यात् स्वप्रायम्प्राम इपा। पारमास्थ नित्योदित चैतन्य, पूर्वोक हेतु ही | भो लिङ्गशरीरममूहमें वामनाएं (मस्कार) परिस्फुट उसका हेतु है प्रर्यात् जब कि भामा उपत्र नहीं होती। | रहती हैं । मापदयस्थाम सुक्ष्मगीर के माय म्य नगर पविक्षत परब्रह्म ही देहादि उपाधिसम्पर्कमे जीवभाया | उपाधि है, यहो उपाधि जीवके दुःका कारण है। मोव वित हैं. इसलिए जीव नित्य चेतन्यरूपो है, न कि उपाधिरहित होने पर समस्त दुःमि मुक्त होता है। भागन्तुक चैतन्य । पूर्व पक्षका जो यह कहना है कि, स्य लघरीर के नाम होने मे म उपाधिका नाम नही सुम पुरुपमे सन्य नहीं रहता, इमका गतिने प्रतिवाद | होता । म उपाधिको दूर करने के लिए यवण, मनन, किया है। पामा सुपुतिकाल में देखतो नहीं, ऐमा निदिध्यामन पावरमक है, इसमे धीरे धीरे पग्लिन नहों । देखती पर नहीं भी देखती है। टय्य ही मस्तारागिका माग हो जाता है। फिर ओम प्रामानोमे नही हेपतो। ओ हरिका हा पर्यात मानसा माता| राधिरहित हो सकता। पर उपालि पानया