पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५१२

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जैनधर्म नहीं' इस बातका विमा विचार किये किमो चीजको | आमादन और प्रशंसनीय भाममें दोष लगानेको उपघात रखना या डालना अथवा ठीक जगह न रख कर यत्र कहते हैं। इनमें से जानके विषयमें होनेसे धानावरणीय तत विना देखे भाले ही पटक देना ). ३ दुःप्रमृष्टनिक्षे | और दर्शन के विषयमें होने से दर्शनावरणीय कर्मों का पाधिकरण (विना यत्नाचारके वा टुष्टतामे किमी चीजको | भास्त्रव होता है। खना वा डालना) ओर अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण दु:ग्व, शोक, ताप ( पयात्ताप), याक्रन्दन ( रुदन) (विना देखे ही चीजको पटक या फेक देना)। जोड़ने वध (प्राण घात) और परिदेवन (करुणा-जनक विलाप), या मिलानेको मयोग कहते हैं। यह दो प्रकारका इन्हें स्वयं करनेसे, अन्यको कगर्ने तथा दोनोंको एक । है-१ उपकरणम योजना (शीतस्पथ युक्त यसको उण साथ होनेसे असातावेदनीयकर्म का प्रास्रव होता है। वस्तुसे. पोंछना या शोधना) और भलापानस' योजना | इनमे विपरीत भूतप्रत्यमुकम्पा ( चारों गतियोंके जीवों (पान भोजनको अन्य किमी पान-भोजनमें मिलाना | और व्रतियों के दुःखको देख कर उन्हें दूर करनेके भाव), प्रादि)। निप्तर्गाधिकरण तीन प्रकारका है-१ मनी. दान (परोपकारके लिए धन, औषध, आहारादि देना ), निसर्गाधिकरण (दुष्ट प्रकारमे मनका प्रवर्तन करना), सरागसयम (पांच इन्द्रिय और मनको वश करने और २ याग्मिसर्गाधिकरण ( दुष्ट प्रकारमे पचनको प्रवृत्ति दुष्ट कोक विनाश करनेके लिए राग महित मयम करना) और ३ कायनिसर्गाधिकरण । धारण करना ), योग ( अनिन्य आचरण ), क्षमा और उपर्युका १०८ (अथवा ४३२) प्रकारके जोवाधिः | शौच ( लोभका त्याग ) पालन करनेसे सातावेदनीय- करण और ११ प्रकारके अजीवाधिकरणों के प्राययसे कर्म का पासव होता है। इसी प्रकार कैवतीका प्रवर्ण कर्मों का पागमन वा पासव होता है। ऊपर सामान्य वाद (केवलज्ञानयुक्त सर्व के दोष लगाना ), शास्त्रका पासव भेट कहे गये हैं। अब ज्ञानावरत प्रादि वियेष भवर्णवाद (शास्त्र में मद्य मांस-मधु आदिकै सेवनका पासवोंके कारण कहे जाते हैं। उपदेश है, वेदनामे पीड़ित के लिए मंथन धेवन धादि आत्माके ज्ञान और दर्शनको पाच्छादन करनेमें कहा है, इत्यादि दोप लगाना), सहका अपवाद पर्यात् ज्ञानावरण और दर्शनावरणकर्मके पासव होने में | (मरोरमै ममत्व न रखनेवाले वोतराग मुनीखरों के ये छ कारण हैं, यथा-१ प्रदोप, २ निङ्गव, ३ मासय, महकी निदा करना), धर्म का पवर्ष याद (पहिसा. ४ अन्तराय, ५ पामाटन और ६ उपघात। कोई व्यक्ति मय जैनधर्म को निन्दा करना) और देवीका अववाद मोत कारणभूत तत्त्वज्ञानको प्रशंसायोग्य चर्चा कर रहा! ( देवीको मांसभक्षी सुरापायो, भोजन करनेवाले तथा हो, परन्तु उसे सुन कर पाभावसे उनकी प्रशसा न मानुषों में कामसेवनादि करनेवाले वाहना) करनेसे दर्शन- करना या मौन धारण करनेके भावको प्रदोष कहते हैं। मोहनोय-कर्म का पासव होता है । चामनानी तपखि ओ स्वय' भास्त्रोका जाता विज्ञान हो कर भी सावके | योंको निन्दा करना, धर्म को नष्ट करना, किसोके धर्म- विषयमें किसोके कुछ पूछने पर उसे न बतावे अर्थात् माधनमें विघ्न डालना ब्रह्मचारियोंको ग्रह्मचर्यमे चिगाना, शास्त्रज्ञानको शिपावे, ऐसे भावको नियमाय कहते ) मद्य मांस-मधुके त्यागीको भ्रम पैदा करना इत्यादि हैं। इम पभिप्रायमे किमीको शास्त्रादि न पढ़ाना कि, असद कामि चारित्रमोहनीय कर्म का प्रास्रव होता यह पढ़ कर पण्डित हो जायगा और मेरो बराबरी है। करेगा, ऐसे भावको मात्सर्य कहते हैं। किसीके जाना बहुत भारभ (हिंसा-जनक कार्य) करने और भ्याममें विघ्न डालना अथवा पुस्तक, पाठक, पाठशाला बहुत परिग्रह रखनेसे नरकायुमा पासव होता है पर्यात् आदिका विच्छेद कर देना, इत्यादि भावोंको अन्तराय, मरनेके पचात् नरकम जन्म लेना पड़ता है। कुटिसखभाष आहते हैं। अन्य द्वारा प्रकाशित भानको रोक देनापर्यात् मायाचारी (मममें कुछ विचारमा, पचनसे कुछ कि, अभी इस विषयको मत कहो इत्यादि भावको! कहना मोर गरीरमे पोर हो प्रति बारदा) सरनेमे