पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५७९

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५२४ जैनधर्म तृणा, मोह एवं वारिग्रहसे उनका क्रिश्चिन्भाव ] करनेमे तथा तपोवन को विशेष मामयं होनेमे उनके . भो समर्ग नहीं है, समलिये वे परिग्रहत्याग महाव्रती | टांतों में किमो प्रकार मल म'चय नहीं हो पाता। मान हैं। इन पांच महाव्रतीको मुनि मन-वचन कायमें निर- भो नहीं करते, मान करने के लिये जलकी पावश्यकता . तिचार पालते हैं। होगी. उमके लिये यावकोंमे याचना करनी पड़ेगी। ___पञ्च इन्द्रियनिरोध-पर्यन इन्द्रिय, रमना इन्द्रय, इसके सिवा सान करनेका पारम्भ करनेमे नाना जीयों की घाण इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और योन इन्द्रिय इन पांचों हिमा होना नियित है । मुनियों के हिमाका मर्यघा परि इन्द्रियों के जो म्पर्ग, रम, गध, वर्ण और शब्द ये पांच त्याग है, इसलिये वे सान नहीं करते। मान यायकोंके , विपय हैं, उनमें थोड़ा भी राग नहीं करना, पांचों लिये ही प्रावश्यक है। उन्दी के शरीरमें गार्हस्थ्य जीवन में इन्द्रियों के विषयों को मर्यथा छोड़ देना इमीका नाम पञ्च / अशुद्धतामोंका समावेश होता रहता है, मलिन पदान. इन्द्रियनिरोध है। कानमे शास्त्र का सुनना, चक्षुसे यो का संसर्ग होता रहता है, मुनियों के न कोई प्रगुरु . जिनेन्द्र प्रतिमा या शास्त्रका देवना आदि शब्द एवं रूप मसग है और न मलिनता ही है, प्रत्युत उनका शरीर आदिमें शामिल न होने से उन्हें इन्द्रियों के विषय में नहीं तशेवन्नमे कञ्चनवत् सारा तेजोमय एवं दिष्य बन जाता समझना चाहिये । विषय उसीका नाम है, जिससे है। इमोलिये उनका स्रान न करना, मूलगुणमें शामिल सामारि कवासना पुष्ट होती हो अथवा रति-प्रतिरूप है। केगलोच भी एक यावश्यक गुण है। चार माममें परिणाम होता हो । जहां निकपाय विरह वुद्धिसे पदार्थ | एकबार वे अपने हाथोंसे थिरके तथा दाढ़ी-मूछके बाल ग्रहण है, वहां विषय मेवन नहीं कहा जा सकता। मुनि झट झट उपाड़ डालते हैं, शरीरसे ममत्व छोड़ देने पांचों इन्द्रियों के सेवनसे मर्वथा विरक्त हो चुके हैं। कारगा वे उन केशोंके उपाइनेसे किञ्चिन्मात्र मो पीड़ा ____ छह आवश्यक---(१) मुनि मान्यभाव धारण करते / नहीं मानते। वास्तवम यह बात अनुभवसिष्ठ है कि · ..' हैं अर्थात् किसी पदार्थ में रागदप नहीं करते-ण शारीरिक पोड़ाका अनुभव तभो होता है. जब शरीरमे .. और कांचन, शत्र और मित्रको समान समझते हैं; ! ममत्व होता है । यदि मुनिगण केशलोचमें स्वातन्ना (२) शहात्माको विकाल वदना करते हैं-निर्विकार | नहीं रक्खें और सुरिका आदि के लिये न्यावीमे याचना निकषाय रागहे परहित वीतराग सर्वज्ञात्मा (पर. | करे, तो उनका जीवन परायित हो जाय। समस्त मात्मा )का विकाल स्तवन करते हैं: (२) उनके गुणों को विभ तिको छोड़ कर जंगल में ध्यान लगानेवाले महा. (आरमोय गुणोंको) ममता मान कर कर्माको व्याधिको पुरुष किसी वस्तु के लिये भी परतन्त्र जीयन नहीं बनाना हटानका प्रयत्न करते हैं: (8) प्रमादवश होनेवाले अपने चारते । इसके सिवा उम तुरिकाको मम्हाल, रखवाली दोपोंका पद्यात्ताप करते हैं-एव उन्हें उच्चारण कर | आदि करनेमें ममत्व परिणामका प्रादुर्भाव अवश्य तजनित पापोंकी निष्पत्ति चाहते हैं; (५) स्वाध्यायमें उप | होगा। पतएव स्वावलम्बन पूर्वक केशलञ्चन गुण ही योग लगाते हैं पीर (६) चित्तको मन पदामि हटा कर मुनिष्ठत्तिक मुथा उचित है। यदि रिकामे भो ध्यान में निमग्न होते है - ये छ अावश्यक कर्म हैं, जो केशोंको नहीं काटें और 'हाधसे भो नहीं नीचे, तो प्रतिदिन मुनियों द्वारा पाले नाते हैं। केगों की हदि होगो, उनको अधिक हदिमें जीवोंका ५ ममिति, ५ महावस. ५ इन्द्रियनिरोध और | सञ्चार एवं मलंका ममावेश होगा इसलिए केश लशन . ६ भावश्यक इस प्रकार कीस मूलगुण तो ये हैं। गुग्प भी ग्राह्य है। .. . इनके मिया मुनि पृथ्वीमें भी मोते हैं। भोजन नम्नत्व भो मुनियों का मुख्य गुण है । इस गुए के भिजाति दाग खड़े हो कर ही करते हैं, दिनमें | विना तो उनको स्वरूप प्रालि ही अयय है । इमो एकवार ही भोजन करते हैं। वेदांतीन नहीं करते। नग्नत्व गुणमे उनको वाध्य पहचान होती है जिमप्रकार . . क्योंकि माविक पदार्थीका बस्पाहार एवं उपवामादि | कोटा अनक विना किमी विकारभावके नगा रहता