पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३६५

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पोत विचित है, इसलिये वैराग्यका अवश्य अवलम्वन करना | प्रकार रज्जु और शुक्तिकासे भिन्न नहीं है तथा अनि- चाहिये। वचनीय है, उसी प्रकार ब्रह्ममें परिकल्पित विषयादि सृष्टि, स्थिति और प्रलयविषयक चिन्ताको वैराग्यका प्रपञ्च ब्रह्मसे भिन्न नहीं है तथा अनिवचनोय है। जो उपाय कहा है। अतएव यहां इन विषयों पर कोई | निर्वाच्य है वह सत्य, जो अनिर्वाच्य है वह मिथ्या, विचार करना आवश्यक है । सृष्टिविषयमें तीन मत | सत्यवस्तुका निर्वचन अवश्यम्भावी और मिथ्यावस्तुका बहुत कुछ प्रसिद्ध हैं-आरम्भवाद, परिणामवाद और | निर्वचन असम्भव है। ब्रह्म निर्वाच्य है, इस कारण विवर्त्तवाद । आरम्भवाद नैयायिक और वैशेषिकका, | ब्रह्म सत्य है। जगत् वा विषयादिप्रपञ्च अनिर्वाच्य है। परिणामवाद सांख्य और पातञ्जलका तथा विवत्तवाद । इस कारण जगत् मिथ्या है। लेकिन जगत्के पारमार्थिक वेदान्तीका अनुमत है। सत्यत्व नहीं रहने पर भी व्यवहारिक सत्यत्व अवश्य आरम्भवादमें कारण सत् और कार्य असत् है । इस है। जब तक शुक्तितत्त्व साक्षात्कृत नहीं होता, तव मतमें सत्-कारणसे असत् कायकी उत्पत्ति होती है। तक शुक्तिपरिकल्पित रजत सत्य समझा जाता तथा कारण कार्योत्पत्तिके पहले विद्यमान रहता है, किन्तु जब तक रज्जतत्त्व साक्षात्कृत नहीं होता, तब तक उत्पत्तिके पहले कार्यका अस्तित्व नहीं है। परमाणु रज्जुमें परिकल्पित सर्प सत्य हो समझा जाता है। आदिकारण है, वह नित्य है। अतएव वह आणुकादि रज्जुतत्त्व तथा शुक्तितत्त्वके साक्षात्कृत होनेसे परि- कार्यकी उत्पत्तिके पहले विद्यमान था। किन्तु द्वाणु कल्पित सर्पका तथा रजतका मिथ्यात्ववोध होता है। कादि कार्य-उत्पत्तिके पहले विद्यमान न थे। इसी कारण | उसी प्रकार जब तक ब्रह्मतत्त्वका साक्षात्कार नहीं होता, भारम्भवादका दूसरा नाम असत्कार्यवाद है। तब तक जगत् सञ्चा ही समझा जाता है। ब्रह्मतत्त्वके परिणामवादमें असत्की उत्पत्ति स्वीकार नहीं की | साक्षात्कार होनेसे जगत् मिथ्या प्रतीत होगा। जब जाती। इस मतमें उत्पचिके पहले भी कार्य सूक्ष्मरूपमें जगत् यथार्थमें सत्य नहीं, तव जगत्की मायामें मुग्ध कारणमें विद्यमान था। कारणके व्यापार द्वारा केवल | हो परमार्थ सत्यवस्तु अर्थात् ब्रह्मसे दूर रहना कहां तक कार्यको अभिव्यक्ति होती है । तिलमें तेल है, जो पीसनेसे | युक्तिसंगत है, स्वयं विचार लें। वाहर निकलता है, दूध दहीके रूपमें और मिट्टी घड़े के | वेदान्तके मतसे माया सहित परमेश्वर जगत्सृष्टिका रूपमें परिणत होती है। इस प्रकार सत्त्वादि तीनों | कारण है मायाकी शक्ति अपरिमित और अनिरूपणीय गुण महत्तत्त्वरूपमें और महत्तत्त्व अहङ्काररूपमें परिणत है। प्रपञ्च विचित्र है। कारणगत वैचित्य नहीं रहनेशे होता है। इस परिणामवादका दूसरा नाम सत्काय कार्यको विचित्रता नहीं हो सकती। अतएव कार्य- वाद है। परिणामवाद और विवत्तवाद बहुत कुछ वैचित्राका हेतुभूत प्राणिकर्म सृष्टिका सहकारि-कारण हैं। मिलता जुलता है। विवर्त्तवादमें कारणमात्र सत् और सृज्यमान पदार्थ नामरूपात्मक है, सृष्टि के प्राक्क्षणमे काय असत् है। कार्य खरूपमें असत् होने पर भी सृज्यमान समस्त नाम और रूप परमेश्वरकी बुद्धिसे कारणरूपमें वह सत् है, ऐसा कहा जा सकता है। प्रतिभात होता है । प्रतिभात होनेसे ही 'यह करेंगे' कारणका संस्थान मात्र हो कार्य है, कारणसे भिन्न काय } इस प्रकार संकल्प करके उन्होंने जगत्को सृष्टि की। नहीं है। कारणका जैसा निर्वाचन किया जाता है, परमेश्वरने पहले आकाशकी सृष्टि की। पीछे आकाशसे कार्यका वैसा निर्वाचन नहीं किया जाता । इसी | वायु, वायुसे अग्नि, अग्निसे जल और जलसे पृथ्वीको कारण विवर्त्तवादका दूसरा नाम. अनन्यवाद वा अनि- सृष्टि हुई। यह आकाशादि विशुद्ध भूत है अर्थात् वचनीयवाद है। रज्जुमें सर्पभ्रम, शुक्तिकातमें रजत- अपञ्चीकृत वा अविमिश्र भूत है। इनमें एकके साथ भ्रम आदि विवर्त्तवादका दृष्टान्त है। रज्जुमें परि- दूसरेका मेल नहीं है। इस विशुद्ध आकाशादि पञ्च- कल्पित सर्प तथा शुक्तिकातमें परिकल्पित रजत जिस | भूतका दूसरा नाम पञ्चतन्मात्र है। क्योंकि, पांचों से