पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ताण्ड्यब्राह्मणादिमें ये सब सोमयज्ञ एकाह, अहीन और स्वरसे तथा यजुर्वेदीय पाठ उपांशुकमसे उच्चारण सल नामक तीन श्रेणीमें विभक्त हैं। एक दिन होने- करना चाहिये। . आश्रुत, प्रत्याश्रुत, प्रवर, संवाद और वाले छोटे छोटे सोमयागोंको एकाह कुछ दिनमें होने- सम्प्रेषकी जगह यजु उपांशुक्रमसे. पढ़ने का नियम नहीं। याले. मध्यम प्रकारके यागोंको अहीन तथा अधिक है। आवश्यकतानुसार यथास्थानमे (१२, १४, १६ सू०) समयमें होनेवाले बड़े यज्ञोको सत्र कहते हैं। पाफ- यह सब मन्त्र मध्यम और तारस्वरमें ही पाया जाता संस्थाके अन्तर्भूत वैश्वदेव तथा उसके अतिरिक्त वरुणः | है। आज्य दोनों भाग समर्पणके पहले आश्राव, प्रत्या- प्रधास और साकमेध नामक तीनों याग चातुर्मास्यके । श्राव, प्रवर, संवाद और सम्मेषमन्त्र स्वरमै पढ़ना अन्तर्गत हैं। पशुबन्धको कोई कोई निरूढ़ पशुवन्ध भी चाहिये । स्वर शब्दमें देखो। कहते हैं। उनमें इष्टि एक विशेष नाम है। इष्टि अनेक सोमयज्ञ समूहोंका प्रात्यहिक कार्यकलाप प्रात:सवन, तरहकी हैं, जैसे-आयुष्कामेष्टि, पुत्रेष्टि, पवितेष्टि, वर्ण, माध्यन्दिन सवन और तृतीय सवन कहलाता है। प्रात:- कामेष्टि, प्राजापत्येष्टि, वैश्वानरेष्टि, नवशस्येष्टि, ऋक्षेष्टि, कालोन प्रातःसवन यागाङ्गकी विधि ऐतरेय, तैत्तिरीय, मोष्पताष्टि इत्यादि। शतपथ और छान्दोग्य आदि ब्राह्मणमें तथा आश्वलायन, पशुसाध्य योगमात्रको ही पशुयाग कहते हैं । अनति- कात्यायन और सांख्यावणसूत्रमें विशदरूपसे लिखा गया प्राचीन अर्धापरिशिष्टमें (५१) उसोके अनुकल्पको है। स्विष्टकृत भयागकै आश्रावादि और माध्यन्दिन 'पिष्टपशु' कहा है। उसमें पिठारे (पीसे हुए चावल)के वने | सवनका मन्त्र मध्यमस्वरसे तथा तृतीय सवनका मन्त्र हुए व्यवहार होता है । मनुसंहितामें भी (५५३७) घृतपशु-7 क्रुष्टस्वरसे पढ़ा जाता है। . . . . . . . . का उल्लेख देखा जाता है किन्तु वह यज्ञार्थक नहीं है। . यज्ञकी परिभाषाके २य सूत्रमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और • उक्त ग्यारह प्रकारके यज्ञोंमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वैश्य इन्हीं तीन द्विजातियोंका यज्ञमें अधिकार बतलाया इन तीनोंका समान अधिकार है। ब्राह्मण द्वारा गृहोत है। किन्तु आत्त्विज्य अर्थात् ऋत्विकका कार्य एकमात्र शूद्रोंका इसमें अधिकार नहीं। इस यज्ञमें ऋक् । यद्य), ब्राह्मणको ही करना चाहिये। क्षत्रिय और वैश्य सिर्फ यजुः (गद्य ) और साम (गीत ) ये तीन प्रकारके सर्व- यजमान हो सकते हैं। अतएव यजमानको पाठ्य मन्त्रादि- विध वेदमन्त्र ही व्यवहृत होते हैं। दर्श और पौर्णमास | का पाठ और यजमान-कर्शष्य यागाङ्गादिका अनुष्ठान भी नामक दो यागोंमें ऋक् और यजुः मन्त्रकी ही आवश्य- | करनेका अधिकार है.। शूदका वह भी अधिकार नहीं है। कता होतो है । साममन्त्रका विशेष प्रयोजनं नहीं होता। .. सोमयज्ञके अहीन और एकाहमें सोलह ऋत्विक मग्निहोत्र नामक यज्ञमें ऋङमन्त्रका व्यवहार नहीं है। दीक्षित होते हैं। उनमें होता, अध्वयु, ब्रह्मा और उद्गाता सिर्फ गद्य प्रधान यजुम्मन्त्रसे ही वह सम्पन्न होता। ये चार प्रधान हैं । मैत्रावरुणं, अच्छावाकः और ग्रावस्तत है।.. किन्तु आदि सोमसंस्था. अग्निष्टोम नामक सर्व होताके ; ब्राह्मणच्छसि, आग्नोन और पोता ब्रह्माके । प्रधान यज्ञमें सभी प्रकारके (ऋक, यजुः और साम)| प्रस्तोता, प्रतिहर्ता और सुब्रह्मण्य उद्दाताके सहकारो हैं। मन्त्रोंकी आवश्यकता होती है। इस कारण उक्त यागमें सूत्रमें ये सोलह तथा गृहपतिकुल सत्तरह ऋत्विक ऋग्वेदवित् होता, यजुर्वेदवित् अध्वयु, सामवेदवित् दोक्षित होते हैं। (भाश्वः श्रो०.४।१ सूत्रमें देखो ।) अलावा उद्गाता तथा सम्पूर्ण विवेदवित् अर्थात् ऋक्संहिता; | इसके यज्ञविशेषमें आत्रेय, सदस्य, उपगाता और शमिता 'यजुःसंहिता, सामसंहिता और. अथर्वसंहिताके - मध्य | आदि भी वृत हुआ करते हैं।... ऐतरेयवा० ७११११ देखो। स्थित अंक, यजुः और साममन्त्र जिन्होंने अध्ययन किये सभी क्रतुओंमें अग्निदेवका सिर्पा एक बार आह्वान हैं वे ही. चतुःसंहितावित् ब्रह्मा हैं। . ये चार व्यक्ति होगा.। अर्थात् प्रति दिन या प्रत्येक काममें पुनः पुनः अग्निकी स्थापना-न करनी होगी। जिन सब यहों में ऋत्विक् वृत होते हैं।

ऋत्विकोंको ऋग्वेद और सामवेदीय मन्त्र उच्चैः- प्रधानतः तीन प्रकारकी अग्निकी स्थापना करनी होती है