पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५१

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४ मुद्रातत्त्व ( भारतीय) ५ कृष्णल%3D१ मास। हुआ है। पाश्चात्य मतको बहुत कुछ स्वीकार करने १६ मास%3D१ सुवर्ण पर भी पूर्णकालमें भारतवर्ष में स्वर्ण मुद्राका प्रचार नहीं ४ सुवर्ण-१ पल। था, उसे हम माननेको तैयार नहीं। शुक्लयजुर्वेदीय १० पल-१ धरण। शतपथ ब्राह्मणमै स्वर्णमुद्राका परिचय पाया जाता है, २ कृष्णल=१ रौप्यमास। "हिरण्य' सुवर्ण शतमानं (१२।७३)।" मनुके ऊपर कहे गपे २६ रौप्यमास- १ राजत, धरण वा पुराण । मानसे मालूम होता है, कि सुवर्ण शतमानका दूसरा १० धरण=१ राजत शतमान । नाम निष्क है। ऋक्संहितामें हम लोग निष्क नामक ४ सुवर्ण= १ निष्का सुवर्ण-मुद्राका उल्लेख पाते है- मनुके मतसे रौप्य 'पुराण' वा धरणका ही दूसरा "अर्हनविभर्षि सायकानि धन्वाईनिष्कं यजतं विश्वरूपं ।" नाम कार्षापण है। पलके चौथाई भागको कप कहते | अक्संहितामें लिखा है, कि फक्षिवान् ऋषिने राजा हैं। तांबेके कर्षका नाम ही पण है। भावयष्यसे १०० घोड़े और १०० बछड़े के साथ १०० मनुस्मृतिके उक्त प्रमाणसे मालूम होता है, कि पूर्व निष्क उपहारमें पाये थे। “शतं राज्ञो नाधमानस्य निष्का- कालमें भारतवर्ष में ताम्रपण वा 'पुराण, रौप्यमाष, रौप्य | च्छतमश्वान्" (भृक्० १२१२६।२) 'पुराण', 'धरण' वा कार्षापण, रौप्य शतमान तथा सुवर्ण ____वर्तमान अनुसन्धानके फलसे स्थिर हुआ है, कि और स्वर्णपल वा निष्कका प्रचार था । किसका परिमाण फिनिक वणिकोंके अभ्युदयके पहले वैदिक सभ्यता और मूल्य कितना है वह भो पूर्वोक्त प्रकारसे निर्धारित थी। इस हिसावसे फिनिकियोंके बहुत पहले भारत- हुआ है। वर्ष निष्क नामक वर्णमुद्राका प्रचार था, इसमें संदेह भारतकी आदिमुद्रा। नहीं। पाणिनिने भी उस निष्क नामक वर्णमुद्राका किस समय भारतवर्षमें प्रथम मुद्राका प्रचार हुभा उल्लेख किण है। वैदिक युगमें आयलोग निष्कको उसे जाननेका कोई उपाय नहीं । वर्तमान पाश्चात्य माला गलेमें पहनते थे, वेदमें इसके भी बहुत प्रमाण मुद्रातत्त्वविदोंका कहना है, कि अति प्राचीनकालमें मिलते हैं। किन्तु उस मुद्राका आकार कैसा था यह फिनिक वणिकसे ही भारतमें चांदोकी मुद्राका प्रचार अव तक भी अज्ञात है। भारतीय प्राचीन मुद्राओंमें हुआ। उसके पहले भारतवर्षमें तावेको मुद्रा चलती| राजमुख आङ्कत रहत | राजमुख अङ्कित रहता था। उसो मुद्राके आदर्श पर थी, किंतु स्वर्ण मुद्राका नामोनिशान भी न था । फिनिक | अलेकसन्दरकी मुद्रा प्रोसमें प्रचलित हुई थो, यह पहले ही कहा जा चुका है। वणिक चार्सिसके. चांदीके पत्तर दे कर ओफिर (सिन्धु- ____ भारतवर्षके नाना स्थानोंसे तावे और चांदीका सौवीर )-से सोनेकी धूल ले जाते थे। भारतवर्षमें पहले 'पुराण' वा 'कार्षापण' आविष्कृत हुआ है। बुद्धगयाके स्वर्णमुद्राको जगह इस प्रकारको स्वर्णधूलिकी थैली | 6.महाबोधिमन्दिरमे तथा भरहुतस्तूपमें इस प्रकार दो हजार (कोष)-का व्यवहार होता था। उस स्वर्णधूलिको पा | - " वर्ष पहलेकी प्रचलित मुद्राको चित्र दिखाया गया है। कर टायरके वणिक धन कुवेर और वणिकाज कह कर इन 'पुराण' मुद्राओंमें एक वा अधिक छेनीके दाग देखे संसारमें मशहूर हो गये थे। जाते हैं। इसी कारण प्रत्नतत्त्वविदोंने इस मुद्राका वाविलनके साथ उस प्राचीन कालमें जो भारतवर्ष- छेनीकट्टा (Punchmarked )-मुद्रा नाम रखा है। का संस्रव था वह वौद्धोंके वावेरु-जातक * में वर्णित प्रनतत्त्ववित् कनिहमका कहना है, कि पंजाबमें जब प्रीक- अधिकार परिवर्तन हुआ, तब भारतके कार्षापणने पुराण

  • प्राचीन वाबिलन दरायुसकी शिलालिपिमें बाविरुश और वा पुराना नाम धारण किया ।* किन्तु प्रीक आगमनके

भारतीय प्राचीन बौद्धजातकमें 'बाबेरु' नामसे मशहूर है। मशहूर है। *Cunningham's Coins of Ancient India, ( Babylonian and Oriental Record. 111 p. 7) | P. 47.