पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५६७

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. यवाग्रयण-यवास यवाग्रयण (सं० को०) सर्वप्रथम निर्गत यवशीर्ष, जौका | यवाग्लज ( स० क्लो०) मवालाभ्यां जायते इात जन-उ। सींक। यवान्न, जौकी कांजी। यवाचित (सं० त्रि०) १ यवसम्भार, जौका संचय यवाशिरस (सं० क्ली०) यवनिर्मित द्रष्य, वह वस्तु जो २ यवराशि, जौको ढेर। ३ यवाकीर्ण, जौसा भरा | जौकी बनी हो। हुआ। यवाद (सं० वि० ) यवं अत्ति अद्-क्किप् । यवभक्षक, जौ यवाष (स क्लो०) एक प्रकारका कीड़ा जो जौको फसल. खानेवाला। को हानि पहुंचाता है। यवाद्यतैल-वैद्यकके अनुसार एक प्रकारका तैलौषध ।। यवापिक (सं० वि०) यवाप नामक कोटसम्यन्धीय, यवान (सं० वि०) यवेन वेगेन अणिति जीवतीति यवादष्टा । अण अच् । १ वेगवान् , तेज। (क्ली० ) २ यमानी, यवापिन् ( स० वि० ) यवाससंयुक्त । अजवायन। यवास (सं० पु०) यौतीति यु (ऋतन्यश्चीता । उण ४।२) इत्या. यवानिका (सं०स्त्री०) यवानी देखो। दिना आस । यासस्नुप । जवासा नामक कांटेदार क्षुप । यवानो (सं० स्त्री०) दुष्टो यवः ( यवाद्वोष पा। ४।१४६) भारतवर्षके गाङ्गेय उपत्यका और मध्यभारतमें इत्यस्यवात्तिकोफ्त्या ङोप अनुगागमश्च, पक्षे स्वार्थे कन्। कोकणप्रदेशमें, हिमालयतर पर, दक्षिण अफ्रिकाके मरु- ओपधिभेद, अजवायन । पर्याय-दीप्यक, दीप्य, यवः । देशमै, मिस्र, अरव, पशियमाइनर, ग्रीस. वलुचिस्तान साह, यवाग्रज, दीपनी, उग्रगन्धा, वातादि, भूकन्दक, आदि नाना स्थानोंमें यह क्षप उत्पन्न होते देखा जाता यवज, दीपनीय, शूलहन्ती, यवानिका, उग्रा, तीनगन्धा ।। है। भिन्न भिन्न देशमं यह भिन्न भिन्न नामसे पुकारा गुण-कटु, तिक्त और उष्ण, तथा वात, अर्श, श्लेष्म, जाता है, जैसे-हिन्दी-यवासा, जवास, जनवासा, शूल, आध्मान, कृमि और छर्दिनाशक । (राजनि०) यवासा, यवानसा, कच्छ-जवाशा; बङ्गला-यवांसा, ___ भावप्रकाशके मतसे दूसरों नाम-उपगन्धा, ब्रह्म- दुलाललमा, संस्कृत-दुरालभा, गिरिकर्णिक, यवास; दभा, अजमादिका, दाप्यका, दाप्या आर यवसाहया, पारस्य-सुतर-खार, उस्तर-खार, खार-इ-शुतर अरव- गुण-पाचक, रुचिकर, तीक्ष्ण, उष्णवीय, कटुतिक्तरस, : आलहजु, हाज, आकुल, शौरकुल-जमाल; तेलगू-गिरि- लघु, अग्निदीपक, पित्तवर्द्धक, शुक्रघ्न तथा शूल, वायु, कर्मिक, तेल्ल, गिनियचेडु। कफ, उदय, आनाह, गुल्म, लोहा, और कृमिनाशक । इसकी पत्तियां करौंदेकी पत्तियों के समान होती हैं। अजमोदा देखो। यह नदियों के किनारे वलुई भूमिमें आपे आप उगता है। यवानीक (सं० पु०) यमानी, अजवायन । वरसातके दिनों में इसकी पत्तियां गिर जाती हैं और यवानीशाक ( स० फ्लो० ) यमानीदल, अजवायनका कुआर तक यह विना पत्तियोंके नंगा रहता है। वर्षाके साग। यवान्न ( स० क्लो०) यवकृतमन्नम् । यवका अन्न, जौका वीत जाने पर यह फलता फूलता है। वैद्यकमें इसको कडुमा, कसैला, हलका और कफ, रत, पित्त, खांसी, भात। यवापत्य (सं० क्ली० ) यवस्य अपत्यं तजातत्वात् तृष्णा, तथा ज्वरनाशक और रक्तशोधक माना गया है। कहीं खसकी तरह इसकी रट्टियां भी तथात्वं। यवक्षार, यवाखार। यवाम्ल ( स० क्लो०) यवकाजिक, जौकी कांजी। यह लगाते हैं। फूल या डालको पुलटिश देने अथवा डाल- पाकमें कटु, वात और श्लेष्मनाशक, रक्तवद्ध फ, पित्त का धु'मा लगानेसे अर्शरोग दूर होता है। इसके काढ़ेसे वर्द्धक, भेदक, पित्त के लिये पीड़ा और रक्तदोष-नाशक तिक्तमधु यवशर्करा वनती है । ‘वालकोंके काशरोगमें माना गया है। यह बहुत लाभदायक है । इसकी पत्तीसे जो तेल निकाला