पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५९

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५६ मुद्रातत्त्व (भारतीय) उपाधिधारो २य चन्द्रगुप्तके समय (प्रायः ४१० ई०)। लाते हैं। इस राजाको मुद्रामें 'प्रकाशादित्य' नाम सुराष्ट्र और मालवाके क्षत्रपाधिकार तक गुप्तसाम्राज्य- अङ्कित है । उनके लड़के नरसिंहगुप्त थे। मुद्रामें भुक्त हुआ था। गुप्तराजवंश शब्द देखो। नरसिंह 'नर-वालादित्य' नामसे प्रसिद्ध है। इन्हींको "गुप्तसम्राट् द्वारा प्रवर्तित नाना प्रकारको स्वर्ण और किसी किसीने मिहिरकुलविजयी बालादित्य' माना है। ताम्रमुद्रा पाई गई है। पहले गुप्त-सम्राटोंने मथुराके पीछे दो कुमारगुप्तका नाम मिलता है। वे अपनी मुद्रा कुशनराजाओंको मुद्राके अनुकरण पर अपने अपने नाम- पर 'कुमारगुप्त क्रमादित्य' नामसे मशहूर हैं। बहतोके से मुद्रा चलाई। अन्तमें उन लोगोंकी मुद्राने स्वाधीन | मतसे इसी २य कुमारगुप्तके साथ गुप्तसम्राटोको वंशधार भावसे भारतीय शिल्पका चरमोत्कर्प लाभ किया । क्षत्र शेप हुई ! किन्तु विष्णुगुप्त चन्द्रादित्यको बहुत-सी पाधिकार लाभ करके सुराष्ट्र और मालव अञ्चलमें गुप्त | मुद्राएं पाई गई है। उन मुद्राओं के साथ नरवालादित्य सम्राटोंने जो रुपया चलाया उस पूर्वतन क्षत्रपमुदाका और श्य कुमारगुप्त क्रमादित्यकी मोहरका सादृश्य रहने- अनुकरण देखा जाता है। परन्तु क्षत्रपमुद्राके चैत्यको से उन्हें शेषोक्त राजाओं के उत्तराधिकारी मान सकते हैं। जगह गुप्तमुद्रामें 'मयूर' का चित्र दिया गया है। इस वशके अन्तिम राजाला नाम 'शशाङ्क है । ६०० गुप्तसम्राटोंको स्वर्णमुद्रा में पहले पहल कुशनराजों ईमें वे कर्णसुवर्णका शासन करते थे। उनका दूसरा 'द्वारा परिगृहोत रोमक मान ही लिया गया था, किन्तु | नाम नरेन्द्रगुप्त है । उनके दोनों नामोंकी मुद्रा मिलती है। उन लोगोंके यत्नसे हिन्दूधर्माभ्युदयके साथ साथ प्राचीन पूर्व मालवमें सम्राट् स्कन्दके वंशधरगण हो शासन सुवर्ण मान ( = १४६- ४ ग्रेन) प्रचलित हुआ। इस | करते थे। यहांसे उस वंशके वुधगुप्तको चांदीको प्रकार उनके समयमें ऊपरको दोनों तरहको मुद्राका अठन्नी पाई गई है। इसके सिवाय जयगुप्त, हरिगुप्त और प्रचार देखा जाता है। शिलालिपिमें प्रथम प्रकारकी रविगुप्त नामाङ्कित कुछ मुद्राएं भी आविष्कृत हुई हैं। मुद्रा 'दीनार' और शेपोक्त मुद्रा 'सुवर्ण' नामसे वर्णित बलभी। है। फिर वलभी अञ्चलमें गुप्त सम्राटों ने जो सव ताम्र सेनापति भटार्कसे ही वलभी राजवंशको प्रतिष्ठा मुद्रा चलाई उनमें मयूरके बदले त्रिशूल' का चिह्न मौजद हुई है। इस वंशको जो रौप्यमुद्रा मिली है वह पश्चिमो है। उनकी ताम्रमुद्रामें पूर्वानुकृतिका कोई निदर्शन | भारतमें प्रचलित गुप्तमुद्राकी जैसी है। उसके एक नहीं मिलता। मुद्रातत्त्वविदो ने ताम्रमुद्राओंको गुप्त भागमें त्रिशूलचिह्न और दूसरे भागमें अस्पष्ट अक्षरमें सम्राटोंका स्वाधीन उद्भावन और निजकीर्ति वत- | मट्टारकस्य' उपाधियुक्त राजाका नाम है। लाया है। नाग । ५वों सदीके अन्तमें सेनापति भटार्कने प्रबल हो| पुराणसे जाना जाता है, कि जिस समय गुप्त लोग कर वलमोके गुप्ताधिकारको छीन लिया। इधर मालव मगधसे प्रयाग तकके विस्तीर्ण मूभागका शासन करते के उत्तर और पूर्व में गुप्त सम्राट्वंशीय भिन्न भिन्न शाखा थे उस समय नलको राजधानो नरवरको प्राचीन पद्मा- राज्य करती थी। इस समय साम्राज्यके विभिन्न अंश- वती नगरीमें नव नागका राज्य था। इस वंशके छ: में सामन्त राजे स्वाधीन होनेको कोशिशमें थे । उत्तर- नागराजाओंकी मुद्रा बाहर हुई है। इन नागवंशीय भारतमें उस समय भी गुप्त प्रभाव अक्षुण्ण था। भितरो | गणपति नागको सम्राट् समुद्रगुप्तने युद्ध में परास्त प्रामसे आविष्कृत बड़ी बड़ी मुद्रालिपिसे मालूम होता किया था। है, कि 'महेन्द्र' उपाधिधारी १म कुमारगुप्तसे तीन राज १३वीं सदोमें यहासे राजपूतमुद्रा निकाली गई है। कुमारों के नाम पाये जाते हैं। पहले नामको ले कर उनमेंसे मलयवर्मदेवकी मुद्रा पर विक्रम संवत् अङ्कित है। ___मौखरी। वड़ा गोलमाल है। कोई तो उन्हें स्कन्दगुप्तका दूसरा नाम स्थिरगुप्त और कोई स्कन्दगुप्तके भाई पुरगुप्त वत- जिस समय पूर्वमगधौ परवत्तों गुप्तराजे राज्य करते