पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/६७७

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६७४ "राजाको भी कपट युद्ध करना चाहिये। अश्वारोहो हो है। जो योद्धा रणमें पीठ दिखा कर शव के शरसे मारा कर कभी भी रथीको ओर कदम न वढ़ावे। रथ पर | जाता वह निःसन्देह नरक जाता है। चढ़ कर रथीकी ओर जाना उचित है। विपन्न, भीत (भारत शान्तिप० १४ १०२ १०) वा पगजित व्यक्तिके प्रति कभी भी हथियार न उठावे । ____ मनुसंहिता, नीतिमयूख, कामन्दकीय नीतिसार, वृद्ध विषलिप्त वा कुटिल वाण ले कर युद्ध करना नितान्त शाङ्गधर, नीतिप्रकाशिका और शुक्रनीति आदि प्रों में • अनुचित है। दुईल, अपत्यहीन, शस्त्ररहित, विपन्न, युद्धका धर्माधर्म विषय विस्तारपूर्वक लिखा है, यहां पर 'छिन्न कामूक और हतवाहन क्षक्षियोंका बध करना संक्षेपमें दिया जाता है। असंगत है। "नच हन्यात स्थलारूढ़ न क्लीवन कृतालिम् । खायम्भुव मनुने धर्मयुद्ध करना हो श्रेय वतलाया है। न मुक्तकेशमासीनं न तवास्मीति वादिनम् ॥ 'साधुओंको सर्वदा धर्मका आश्रय लेना कर्तव्य है। धर्म न सुप्त न विसन्नाहं न नग्न न निराय धम् । विनष्ट करना उचित नहीं। जो शठताका आवरण कर नाय ध्यमानं पश्यन्तं न परेण समागतम् । अधर्मयुद्धमे जय लाभ करते हैं, वे मानो अपने ही पैरमें न भीतं न परावृत्त सतां धर्म मनुस्मरन् ॥" 'कुल्हाड़ी मारते हैं। अधम युद्धमें जयलाभ करनेकी (नीतिमयूखधृत मनुवचन) । अपेक्षा धर्मयुद्ध में प्राणत्याग करना ही श्रेय है। क्षत्रियों- युद्धक्षेत्रमें रथ परसे उतरे हैं, उन्हें मारना उचित ' का युद्ध परमधर्म है। इसीसे युद्धको यज्ञ कहा गया नहीं। क्लीव, अञ्जलिवद्ध, मुक्तकेश तथा जो मैंने आप- है। क्षत्रियगण कवचधारण कर सैन्यसागरमें अवतीर्ण । की शरण ली' ऐसा कहते हैं उन्हें भो मारना उचित { होनेसे ही युद्धयज्ञके अधिकारी होते हैं। कुञ्जरगण इस नहीं। निद्रित, युद्धयोग्य, परिच्छविहीन, नग्न और युद्धयज्ञके ऋत्विक, अश्वगण अध्वयु, अराति (शत्रु ) निरस्त्र व्यक्ति पर भी आघात न करे। जो युद्ध नहीं का मांस हवि, शोणित आज्य तथा गाल, गृध्र और करते, केवल युद्ध देखते हैं तथा जो दूसरेके सोथ युद्ध • काकगण उसके सदस्य हैं। वे सदश्यगण उस कर रहे है, जो विह्वल और पलायनपरायण हैं, उन्हें भी यज्ञका आज्यशेष पान और हवि भक्षण करते हैं। हनन करना मना है। इसके सिवा वृद्ध, बालक, स्त्री, शांणित प्रास, तोमर, खड्ग, शक्ति और परशु ये यज्ञके | स्त्रीवेशधारी, ब्राह्मण, आयुध-व्यसनप्राप्त अर्थात् जिसके स्नु क हैं तथा शत्रु शरीरभेदी निशित सायक उसके नुव पास एक भी अस्त्र न रह गया है, उनकी भी हत्या नहीं है। शाणित खड़ग उसका स्फिका पाश, शकि, ऋष्टि करनी चाहिये । कूट आयुध, विषलिप्त अस्त्र और विविध और परशुका आघात उसको धनसम्पत्ति है। वीरोंके | यन्त्रास्त्र द्वारा युद्ध करना उचित नहीं। परस्पर आक्रमण और प्रहारसे जो रुधिर धारा बहती है, न कूटेगयुधैर्हन्यात् युध्यमानो रणे रिपुन् । वही उस यज्ञकी सर्वकामप्रद पूर्णाहूति है। सेनाओंके दिग्धैरत्युल्वण रस्लैयन्तै चैव पृथकविधैः ॥" सध्य 'मारकाट' आदि जो सब शब्द सुनाई देते हैं, वह (नीतिप्रकाशिका) सामगान है। शत्र -पक्षका सेनामुख उसको आज्य धर्मयुद्धमें कूट अस्त्रादिका व्यवहार विलकुल निषिद्ध स्थाली तथा हस्ती, अश्व और चर्मधारी मनुष्य भी | है। वर्तमानकालमे तोप आदि द्वारा जो युद्ध होता है, श्येनचिह्न वह्नि हैं। सहस्र सेनाके मारे जाने पर जो वह कुटास्त्रमें गिना जाता है। अतएव तोप आदिसे युद्ध कवन्ध उठता है वह उस यज्ञका अष्टकोणविशिष्ट यूप करना धर्मविहित है। है। दुन्दुभि उसकी उद्गाथा है । जो महावोर भया धर्मयुद्धके विषयमे मनुने कहा है, कि प्रज्ञापालन- वह घोर शोणित नदो प्रवाहित कर सकते हैं, वे ही युद्ध कारी राजा यदि समान, मध्यम और उत्तम व्यक्तिसे यशके अवभृत स्नानके उपयुक्त पात्र है। जो निभीक हो । युद्धमें बुलाये जाय, तो उन्हें युद्धसे लौट नहीं जाना कर न्यायानुसार युद्ध करते हैं, उन्हें सद्गति प्राप्त होती चाहिये। राजगण एक दूसरेका वध करनेकी इच्छासे