पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७२३

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६२० योग पतञ्जलिके मंतसे ईश्वरप्रणिधान अष्टाङ्गयोगके वहि- समाधिर्भावनाविशेष एव । ब्रजपस्तदर्थ भावनम् इत्या- रङ्ग पांच प्रकारके नियमों में से एक है। अतएव पातञ्जल गामिसूत्रेणैव आत्मप्रणिधानस्य अत्र लक्षणीयत्तात् । दर्शनमें ईश्वरका स्थान गौण है। क्योंकि, ईश्वरप्रणिधान ब्रह्मात्मना चिन्तनरूपतया प्रेमलक्षणभक्तिरूपाक्ष्य- योगसिद्धिके नाना उपायोंमसे एक उपाय है। माणात् प्रणिधानाहावर्जितोऽभिमुखीकृत ईश्वरस्त' "शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।" | ध्यायिनमभिध्यानमात्रेण अस्य समाधिमाक्षौ आसन्न- (योगसूत्र २०३२) । तमौ भवेतामितीच्छामात्रेण रोगाशक्त्यादिमिरुपायानु- ईश्वरप्रणिधानका उपदेश दे कर पतञ्जलि योगीको | ठानमान्द्योऽप्यनुगृहनाति भानुकुल्य भजते अतस्तस्मा. भगवान्का ध्यान करने नहीं कहते, उनमें कर्मसंन्यास दभिध्यानादपि प्रणिधाननिष्पत्त्यादिद्वारा योगिनामा करने कहते हैं। यही गीतोक्त कर्मयोग है। भगवान्ने सन्नतमौ समाधिमोक्षौ भवतः"- (११२३ सूत्रका योग- अर्जुनसे कहा है,- वार्तिक )। अतएव विज्ञानभिक्षु के मतसे इस सूत्रमें "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।" (गीता २२४७) ईश्वरप्रणिधानका अर्थ कर्माण नहीं -ईश्वरमें चित्ता- कर्ममें ही तुम्हारा अधिकार है, फलमें नहीं। पण वा भावनाविशेष है भक्तिसहकृत ब्रह्मचिन्तन है। "यत्करोषि यदनासि यज्जूहोषि ददासि यत् । किन्तु गीताके मतसे ईश्वरमें चित्तसंयोग ही योग यत्तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम् ॥" (गीता ६४२७)/ है। ईश्वरको छोड़ देनेसे योग होना विलफुल असम्भव जो कुछ करी, जो खाओ, जो मांग कर लावो, जो है। इसीसे गीतामें जहां योगका प्रसङ्ग है वहीं ईश्वर हो, वह सभी मुझमें अर्पण करो। का उल्लेख देखने में आता है। ___पातञ्जलोक्त ईश्वरप्रणिधान इसी ढगका है। ध्यान- इसो कारण भगवान्ने कहा है.-- "योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना । योग इससे स्वतन्त्र है। पतालके मतसे किसी भी विषयमें चित्तका एकतानप्रवाह ही ध्यान है। भगवान् श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥" . (गीता ६४७) ही ध्येय (ध्यानके विषय ) हैं, उन्ही का ध्यान करना वे ही श्रेष्ठयोगों हैं जो श्रद्धावान हो मुझमें (भग- होगा ऐसी कोई बात नहीं। चानमें ) चित्त संयुक्त कर मेरा भजन करते हैं। ___ पतञ्जलिके मतसे यदि योगी ईश्वरप्रणिधान करे ) "यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वच मयि पश्यति । अर्थात् भक्तिपूर्वक ईश्वरमें समस्त कर्मसंन्यास करे, तो तस्याह'न प्रणश्यामि सच मे न प्रयाश्यति ॥ ईश्वर प्रसन्न हो कर प्रकृति-पुरुषका विवेक-ज्ञान उनके सर्वभूतस्थित यो मां भजत्येकत्वमास्थितः। लिये सुलभ कर देते हैं। उसके फलसे योगीकी आत्मा सवथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्त्तते । भगवानमें संयुक्त नहीं होती, केवल विवेकज्ञान निश्चल (गीता ६।३०.३१) हो जाता है। ईश्वरप्रणिधानके फलसं व्याधि आदि जो मुझको ( ईश्वरको ) सभीमें तथा सभीको मुझ- विघ्न होते हैं तथा आत्मसाक्षात्कार लाभ होता है। में देखते हैं, मैं कभी भी उससे अदृश्य नहीं होता और ईश्वर साक्षात्कार नहीं होते। न वह मुझसे ही अदृश्य होता। सर्वदर्शनसंग्रहकार पातञ्जलदर्शनके परिचयस्थल. | जो योगी एकत्वका अवलम्वन कर सर्वभूतस्थ हमको में ईश्वरपणिधान शब्दका अर्थ इस प्रकार किया गया भजते हैं. वह चाहे किसी भावमें क्यों न रहे, मुझमें हो ईश्वर-प्रणिधानं नामाभिहितानामनभिहितानाश्च | अवस्थित करता है। सर्वासां त्रियाणां परमेश्वर परमगुरौ फलानपेक्षया समर्प- गोताने और भी कहा है, कि योगी यदि देहत्याग- णम् ।" किन्तु ईश्वरप्रणिधानाद्वा " इस सूत्रके वार्तिक- | कालमें ओङ्काररूप ब्रह्ममन्त्र उच्चारण कर भगवानका में विज्ञान भिक्ष ने ऐसा लिखा है,-"प्रणिधानमत्र न | स्मरण करते हुए देहत्याग करें, तभी वह परमगतिको हठयोग देखो। द्वितीयपादवक्ष्यमाणं, किन्तु असम्प्रहातकारिणीभूत- 1 प्राप्त होते हैं।