वार्तिक
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अटकाकर्म स्मार्त है, किन्तु घेदमें उसका उल्लेख है।, कारने दिखलाये हैं उनमें से एक उदाहरण नीचे दिया जाता
जलाशयका खुदयाना और प्रपा अर्थात् पानीय शालाकी है। ज्योतिष्टोम यागमें सदो नामक मण्डपमें एक उदु.
प्रतिष्ठा आदि स्मृति-उक्त कमौका आभास भी वेदमें देखा । म्बर वृक्षको शाखा गाड़नी होती है। उस शाखाको स्पर्श
जाता है। भाज्यकारके मत जलाशयखगन, प्रपाप्रतिष्टा कर उद्गाथा नामक ऋत्विक सामगान करें, ऐसी श्रुति
- आदि कर्म दार्थ हैं। क्योंकि इनसे मनुष्यकी भलाई है। उदुम्वरको शाखाको काहे से पूर्णतः ढक दे', ऐसी
होती है. यह प्रत्यक्ष सिद्ध है। इसलिये जलाशयादिका । भी एक स्मृति है, यह स्मृति उक्त घेदविरुद्ध है। क्योकि,
खुदयाना धर्मार्थ नहीं, लोकोपकारार्थ है। लोकोपकारा शाखाको पूर्णतः कपड़े से ढक देने पर उदुम्बरको शाखा
अवश्य धर्मार्थ होगा। स्मृति घर्णित यहुतेरे विषयोंको पर उपस्पर्श होगा अर्थात् उदुम्बर शाखासे संयुक्त वस्त्रका
वेदमूलकता जव स्पष्ट देखी जाती है, तय स्मृतिके जो सर्व स्पर्श हो सकता है सही, पर उदुम्यर शाखाका स्पर्श नहीं
मूलीभूत घेवाय हम लोगोंके दृष्टिगोचर नहीं होते, हो सकता । उदुम्बरको शाखाका पर्श करने पर समूची
उनका भो अनुमान करना सर्वधा समीचीन है। अन्नपाक शाखाका घेटन नहीं हो सकता। अतएव सर्वघेटन
करते समय चायल सिद्ध हुमा है या नहीं-यह जाननेके | स्मृति प्रत्यक्ष श्रुतिविरुद्ध है, इसलिये यह अप्रामाण्य
लिये वरतनसे दो एफ चावल निकाल कर दवाते हैं। हाथ है। आपत्ति हो सकती है, कि पूर्वानुभव नहीं रहने पर
से दवाने पर जब पद सिद्ध हुमा जान पड़ता है, तब लोग स्मृति या स्मरण हो नहीं सकता, सर्पवेटन घेदविरुद्ध
अनुमान करते है, कि सभी चापल सिद्ध हो चुके, क्योंकि | है, मतः सर्ववेएनके विषयमें पूर्यानुभव होनेका कोई
सभी घायल एक ही समय आंच पर चढ़ाये गये हैं। भो कारण नहीं। फिर, पूर्वानुभवफे विना स्मरण असं-
उनमेंसे एकके सिद्ध होने और दूसरेके सिद्ध न होनेका भय है। भाष्यकारने इसके उत्तरमे कहा है, कि किसी
कोई कारण हो नहीं रह जाता। इस युक्तिका शास्त्रीय ऋत्विक ने लोभवशतः वन ग्रहण करनेके लिये शाखाको
माम स्थालोपुलाकन्याय है। प्रशत स्थल में भी बहुत सी | पूर्णतः वस्त्रवेष्टित कर दिया था, स्मृतिकने यह देख
स्मृतियां वेदमूलक है, यह प्रत्यक्ष देखने में माता है. इससे मममें पड़ सर्वचेष्टनको घेदमूलक समझ सर्गवेष्टन स्मृति-
स्थालोपुलाकन्यायके अनुसार सभी स्मृतियांकी वेदमूल. | का प्रणयन किया है।
कताका अनुमान किया जा सकता है। .." .. ___ चार्तिक अन्य भाष्यान्थ व्याख्यात और समर्शित
इस वातको दार्शनिकोंने अच्छी तरह प्रमाणित कर होने पर भी पार्शिककार भाष्यकारफे इस सिद्धान्तको
दिया है कि अनेक येदशास्त्राय पिलुप्त हुई है, जो विलुप्त असगत समझ कर दूसरे सिद्धान्त पर पहुंचे हैं। उनका
हो गई है, ये पहले अवश्य थी', अतः घेदवाफ्यमूलक जो कहना है, कि यह अच्छी तरह स्थिर हो चुका है, कि सभी
सब स्मृतियां प्रणोत हुई हैं उनका मूलीभूत वेदवाक्य व स्मृतियां घेदमूलक हैं। ऐसा कोई भी एक स्मृतिवाफ्य
न दिखाई देने के कारण हम उन सघ स्मृतियों को प्रत्यक्ष श्रुतिविरुद्ध होने पर भी यह वेदमूलक नहीं, लोमादि-
मप्रामाण्य नहीं कह सकते। .: . , . मूलंक है, यह किस प्रकार सिद्धान्त किया जा सकता
• किन्तु जो सब स्मृतियां प्रत्यक्ष श्रुतिविरुद्ध है,.भाष्य है। सभी घेदवाक्य नाना शाखाओं में प्रकीर्ण है। एक
कारको मतानुसार ये अप्रामाण्य होंगो। कतिघेद पुरुषका समी दशाखाओंका पढ़ना विलकुल असम्भव है।
,मूलक होने के कारण हो स्मृति-प्रामाण्य है। वेदविरुद्ध कोई कई शाखायें और दूसरे अन्यान्य शाखायें पढ़ते हैं।
स्मृति चेदमूलक हो नहीं सकती, घरन् घेदके विपरीत यह भी सोचनेको वात है कि सभी वेदपाय धर्मानुष्ठान-
होती है, इसलिपे यह अप्रामाण्य है। सच पूछिपे, तो | के क्रमानुसार नहीं पढ़े जाते । उस प्रकार पढ़े जाने पर
स्मृत्तिके मूलरूपमें श्रुतिका अनुमान भी नहीं किया धर्मानुष्ठानके अनुरोधसें उनका सुप्रचार हो सकता था।
जा सकता। कारण, प्रत्यक्ष श्रुतिविरुद्ध अनुमान हो साक्षात् सम्बन्ध प्रचारित धर्मानुष्ठानके उपयोगी घेद-
नहीं सकता। घेद-विरुद्ध स्मृति के कुछ उदाहरण माध्य. वाक्य धार्मिकोंको भयश्य पढने होते हैं। इसके अतिरिक्त
... Vol. AAI, 5
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/२५३
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