पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/२५४

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बार्तिक .. तथा धर्मानष्टानके क्रमानुसार अपरिपठित घेदयापोंका । शिष्ट लोग कभी भी उसका ध्यपहार नहीं करते। वह यिरलप्रचार देख कर भविष्यमें इनफे विलुप्त हो जाने दूसरो दूसरी वैदिक स्मृतियों का ही व्यवहार होता है। को मागडासे परमकारणिक स्मृतिकारोंने घेदवागत दिक स्मृतिका त्याग होता है । यथार्थ कोई भी मनि भास्यानादि अंशीको छोड़ दयाफ्यों का अर्धा मङ्कन अमेदिक नहीं है। सभी स्मृति फट भोर मेनागोर करके स्मृति प्रणयन को है। भादि शाखापरिवेष्टित श्रुतिमूलक है, ऐसा देखने में आता उपाध्याय स्वयं कोई घेदयापच उश्चारण न करके भी यदि है। इस पर वार्तिककार यह मो कईगे हैं कि जब समी कद, कि अर्ध चा विषय अमुक शाग्नान या गमुक स्थानमें एमृतिशास्त्र वेदमूलक है, नम उससे एक बापय जिमा पढ़ा जाता है, तो भाप्त अर्थात् सज्जन और हिनोगदे मूलीभूत वेदयायय हम लोगों के दूष्टिगोचर नहीं होता, पर उपाध्याय पर पूर्ण विश्वास रहने के कारण शिष्य उसोको घेदमूलक नहीं है। हमें यह कहनेको प्रवृत्ति नदों है।तो, कि ठीक समझ लेते हैं। उसी प्रकार स्मृतिवाक्य द्वारा भी । यह अन्यमूलक अर्थात् भ्रान्तिमूलरू या लेागमूल है। धैसे ही वेदयाफ्यका मस्तित्व विवेचित होना युक्तिसङ्गत , जो नायिकामन्य प्रत्यक्ष अर्थात् माना' परिक्षात अनि. है। मीमांसकके मतसे घेद नित्य हैं. किसीफे भो बनाये विरुद्ध होने होस किसी स्मृतियाययको अप्रामाण्य यह नहीं हैं। मध्यापर परम्पराके उच्चारण या पाठ द्वारा कर उपेझा पा परित्याग करते हैं, फालान्तरगे उनके उपे. धार्थात् कण्ठ, तालु आदि स्थानों में आभ्यन्तरोण वायुके क्षित स्मृतियारको मूलोभून 'शानान्तरपठिन अति अभिघातसे जो ध्वनि उत्पन्न होती है उसी ध्वनि छारा जब उनके श्रवणगे।चर या छानगोचरं देगो, नव उनको नित्य घेदको केवल अभिव्यक्ति होती है। जिस प्रकार न्याय मुम्बकान्ति फैसो हे। जायेगी। इसमें सब नहो; कि के मतसे चक्षरादिके सम्बन्धविशेष अर्थात् सम्यन्धविशेष। उस समय अवश्य लज्जित हो जायेगे, के.पल यही द्वारा नित्य गोत्यादि जातिको और आलोकादि द्वारा नहीं, जो अपने ज्ञान होको पर्याप्त समझते हैं अर्थान् घटादिकी अभिव्यकि होती है, उसी प्रकार गोमांसकके उनसे यढ़ कर दूसरा कोई नहीं है, ऐसा मिनमा मतसे कण्ट, तालु आदि स्थानों से उत्पन्न ध्वनिविशेष ख्याल है उन्हें पद पदमें लज्जित होना पड़ता है। उनकी द्वारा नित्य घेदका अभिव्यक्त होना असङ्गत नहीं हो पाधायाध व्यवस्था भी अव्यवस्थित हो जाता है। पाकि सकता। मध्यापक या मध्येताको ध्यनिनिशेष द्वारा : घे अपना परिक्षात श्रतिषियद कह कर एक समय जिस जिस प्रकार वेदको अभिव्यक्ति होती है, स्मृतिकर्ताओं के स्मृतियाफाको अग्रामाण्य सावित करने हैं, पहले उन्हें स्मरण द्वारा उसी प्रकार घेदको अभिव्यक्ति दोगो, इसमें यदि आने अपरिशात स्मृतियारको मूलोभून गावान्ता मरा भी संदेह नहीं । स्मृतिकर्ता भी एक समय शिष्यों को पारित ध्रुति मालूम हो जाय, तो उसी ग्मृतियायको. पढ़ाते थे, उस समय भी उनके उच्चारणसे येदको ममि । उन्हें फिरसे प्रामाण्य या अबाधित मानना पड़ेगा। व्यक्ति होती थी, सम्देह नहो । तप फिर उनके स्मरणने या चार्तिककारने गौर भी कहा है, कि मापकारने शो . मपराध किया है, कि उससे पेयायको अभिव्यक्ति म; उदुम्बरको शाखाको सयठन मृतिको धुनियाद बताया. होगी ? मतपय ध्यनिविशेप द्वारा मभिव्यक 'वेद गौर है, यह युक्तिसगत नहीं है। शाट्यायनि-ब्राह्मण में प्रत्यक्ष . स्मृतिकर्तामों के स्मरण द्वारा अभिव्यक्त येद दोनो' हो । पठिन प्रति ही उसका मन है। गौदुम्बरोप अर्धागा . समान है,नमें जरा भो तारतम्प मा पलावलभाय नहीं। और अधेमागको पृथक पृतक यम्नु द्वारा घरन करे, ऐसी हो सकता। . . प्रत्यक्ष नि नाट्यायनि-ब्राह्मण में मौजूद है।पातिक . . मृत्यभुति भर्धात् जिस श्रुतिका मर्थ स्मृत हुमा कार फेवल इतना हो कर बार चुप नहीं हुए, इन्होंने श्रुतिः प्रति मोर पठित भति पे दोनों ही समाम यलफे। फो उचत फकं दिला दिया गौमाघेटन म्मृते.यदि .. है। इनमें एक दूसरे बाधा नहीं दे सकता। स्मृतिमा ध्रुतिमूल हुई, तो यह किसी मो मनसे हाधित हारा - मैस काई एक स्मृति यदि वाद्योपान्त भपैदिक होती, ती बाधित नहीं है मस्ती.. कि दोनों हो 'धति है ..