वास्तुयाग
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't मध्य इस प्रकार विसर्जन करके दक्षिणा देनी । यागमें भिन्न प्रकारसे है। इन दोनों मण्डलोका विषय
होती है। प्रोछे वृत होता, आचार्य भादिको चरणको | यथाक्रम नीचे लिखा जाता है।
दक्षिणा दे फर यह दक्षिणो उन्हें दे देनी होगी। पोछे । चतुःपरिपदयास्त मण्डल-पूर्यास्य पुरोहित घेदीके
मच्छिद्रावधारण और चैगुण्यसमाधान करना होगा। | पूर्वाश मध्यस्थलमै मण्डल अद्रित करें। (सूतमें
- पहले लिखा जा चुका है, कि वास्तुयार चतुःषष्टिः सफेद पड़ोका दाम दे कर जी घर बनाया जाता
“पद और एकाशीतिपदफे भेदसे दो प्रकारका है। यह है वह घर ठीक होता है) पहले होश भर लम्ये
पद्धति कही गई है यह चतुःषष्टिपद बास्तुयागविषयक | चौडे स्थानके चारों पाय, दाप भर लम्बे
है। एकाशीतिपद वास्तुयाग प्रायः इसी पद्धतिके अनु। सूनस चार दाग दे कर चतुष्कोण मण्डल बनावें । उस
“रूप है, केवल पुमाकालमें कुछ देवताओंको छोड़ गीर | सूतका मध्यस्थल निर्णय करके पूर्व पश्चिम मीर उत्तर-
सभी प्रायः एकसे हैं। ।
दक्षिणमे दो साल रेखाओं के खींचनेसे ८ घर होंगे। पीछे
। । एकाशीतिपद वास्तुयाग-प्रयोग-पूर्वोक नियम मध्यरेखाके दोनों पाच तीन तीन रेखा पूर्व पश्चिमकी
गनुसार स्वस्तिवाचन सङ्कला आदि करके मण्डल करने और खींच कर ठीक उसी तरहकी और भी उछ: सरल
फे स्थानमें चार खूटे गाड़ने और मापमत बलि देनेफ रेखाये खोचे । ऐसा करनेसे पावरेखाके साथ पूर्व-
. बाद पञ्चयर्ण चूर्ण द्वारा एकाशीतिपद वायुमण्डल मङ्कित | पश्चिममें है और उत्तर दक्षिणमें सरलरेखा अङ्किात
करता होगा । मण्डलके घहिर्भागमें मापमक बलि देनेका करने पर ६४ समान घर धनेंगे।
विधान है।
इसके बाद मण्डलके ईशान और नैर्मतकोणस्थित
. इसमें शिखी आदि देवताओं की पूजा करनी होती | दो घरोके ईशान गौर नेत कोणकी ओर बकरेखा तथा
है।' देवताके नाम ये हैं-शिखो, पर्जन्य, जयन्रा, कुलि | वायु और अग्निकाणस्थित घरमें वायु और अग्निकोण.
शोयुध, सूर्य, सत्य, भृग, आकाश, घायु, पूरण, ग्रितध, को गोर बकरेखा खो'चे। ऐसा करनेसे ४ आधेके
दक्षत, यम, गन्धर्य, भृङ्गराज, मृग, पितृगण, दौवारिक, हिसावसे ८ घर पने गे । अर्ध्वपद यलिमें वह भाधा घर,
सुंग्रोव, पुरुषदन्त, घरुण, मसुर, शोप, पाप, अहि, मुख्य ) एकपद पलिमें एक घर और द्विपद पलिमें ऊपर नीचे
. भलार, सोम. सर्प, अदिति, दिति, अप, सापिल, जय, दो घर तथा चतुष्पद पलिमें ऊपर नीचे दो और उसके
. गद्र, अ-मन, सवित, विवस्वत्. .वियुधाधिप, मिन्न, पायत्तौ दे। ये चार घर समझे जाते हैं।
, राजयक्ष्मन. पुरषोधर, भापयत्स, ब्रह्मन्, चरकी, विदारी, पूर्वास्यकर्ता शुक्ला, कृष्ण, पोत, रन और धन इन
पूनना और पापरोक्षसो। . . . . . पांच वर्ण के चूर्णका ले कर शिानकोणसे दक्षिणावत
- इन सब देवतामों की पूजा होम और पायसका क्रमसे पूर्या, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर तक परिचालन
प्रयोजन होता है। मण्डल और देवतामें जो कुछ करे। मण्डल के मध्य केवल २८ घर शून्य छोड़ देने
प्रभेद है उसे छोड़ और सभी कर्म पूर्वोक्त प्रणालोफे अनु. होंगे।
सार करने होंगे। इसी कारण इसके विषयों और कुछ 1. किस देवताका कौन घर है, उसका नाम तथा उस
' नहीं लिया गया। ईशादि चरको पर्यन्त देवताके , घरमें किस वर्णका चूर्ण लगेगा उसका विषय नोचे
बदले में शितो मादि पापराक्षसो पर्यन्त देवताको पूजा लिखा जाता है। इसी प्रणालोके अनुमार चूर्ण द्वारा
होगी बस, इतना ही प्रभेद है। इसमें घासुदेवादि देवता. | यह मण्डल बनाना होगा।
को भी पहले की तरह पूजा होती हैं।
. ईशानकोणस्थित घरके ऊपर गर्भाशमे ईश, शुरू,
.. बाम्त यागको येदी पर पञ्चवर्णके चूर्ण द्वारा जो अर्द्धपद अर्थात् ईशापस्थान, श्वेतवर्ण अद्धं गृह (1०),
, पारा मण्डल अङ्कित करना होता है पद .चतु पष्टिपद उसके हक्षिण पाय में पर्जन्य, पोत, एकपद (२), उसके
पास्त यागमें एक प्रकारसे और एकाशीतिपद यास्त: । दक्षिण जय, धून, द्विपद ( ४ ) शक्र, पीत, एकपद । (५)
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/२८७
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