पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/४६६

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३८८ . विद्यारण्यस्वामी उनका प्रपोड़ित करने लगा । घे परधीकातर हुए सहो, [ खेलनेके लिये तुलाभद्राके दक्षिणी किनारे (जहां इस किन्तुं कर्मवश किसी दूमरो वृत्तिने लग गये और उस समय विजयनगरका ध्वंसावशेष पड़ा हुआ है ) घरटे । से ही उनको अच्छा फल प्राप्त हुआ। थे। ऐसे समय उन्होंने देखा, कि एक खरगोश तेजीसे । ___ स्वप ऐश्वर्यावान् होनेको आशासे मात्रय इएदेवीके आ फर वाघ और सिंहशिकारी कुत्तों को क्षत विक्षत और ." शरणापन्न हुए और देवोको तुएिके लिये वड़ा कठोरतोसे | माहत कर रहा है। राजा अपने कुत्तों को इस तरह तपासाधना करने लगे। देवी भुवनेश्वरीने प्रसन्न हो कर | आक्रान्त होते देख बहुत चकित हुए और इस अद्भुत . कहा, "वस्स! इस जन्ममें तुम्हारे धनप्राप्तिको कोई । और नैसर्गिक घटना पर विचार करने लगे। इसी माशा नहा। दूसरे जन्म में मेरे प्रसादसे तुम गतुल चिन्तामें मग्न होकर घरकी ओर चले । रास्ते सम्पत्तिके अधिकारो हो सकोगे।" उस नदोके किनारे उपासनामें रत एक (माधवाचार्य) दयोके वाक्य सुन कर माधयके चित्तमें वैराग्य उत्पन्न | सन्यासीसे भेंट हुई। उन्होंने इस घटनाका विवरण उस : हुआ। उन्होंने संसारधर्मको निलाझलि दे कर संन्यासा संन्यासीसे कह सुनाया और इसका यथार्थ तस्य पूछ।। . श्रम प्रहण किया। सन् १३३१ ई में घे अपनी जन्मभूमि | उस समय संन्यासोने राजाको जहां यह घटना हुई थो, .. हाम्पो नगरको छोड़ कर मुंगेरोकी ओर चले और वहां उस स्थानको धतलानेके लिये कहा । राजाने भी सन्यासी पहुंच कर वहाँके सुप्रसिद्ध शङ्कर-मठाधिकारी आचार्य को वह स्थान दिवा दिया। सन्यासीने उस समय राजासे ।। प्रयर विद्याशङ्करतोय के चरणों पर गिरे। उस प्याकुल- कहा, कि तुम इस स्थानमें किला और राजप्रासाद. चित्त युवक माधयको शान्तिके प्रयामो देख विद्याताने | निर्माण करो। तुम्हारे द्वारा प्रतिष्ठित यह नगर धनधान्य उनको स्थान दिया और उनको विद्यावृद्धिका प्राय | भोर राजशक्तिमें गन्यान्य राजधानियोंका शीर्ष स्थान ... देख दयाचित्तसे उनको शिष्य पद पर नियुक्त अधिकार करेगा। राजाने उस संन्यासीका मादेश पालन . किया। माधवाचार्यने उसा वर्षमें संन्यासाश्रम प्राण | किया। शीघ्र ही वहां एक प्रासाद और राजकार्योप- किया था। इसके कुछ दिनों बाद विद्यातीर्थ सन् १३३३ योगो ठाट्टालिकाये तैयार कर दो गई । राजाने संन्यासी ई०मे परलोकप्रवासी हुए। इसके बाद माधवाचार्य- ] के मतानुसार इस नगरका नाम 'विद्यांजन' रखा . के अनयती शिष्य भारतीकृष्ण जगद्गुरुको गद्दी पर

  • पुर्तगोज भ्रमणकारी Fernao Nunia भन्दाज सन् :

इसो में अर्थात् सन् १३३३ ३४ ई०में ही दिल्लोके । १५३६ ई में विजयनगरके राजा अच्युतरायको सभामें उपस्थित थे। बादशाह महम्मद तुगलकको फोजाने दाक्षिणात्यक हिन्दू उन्होंने अपने भ्रमणवृत्तान्तमें उपर्युक्त घटनाका विवरण दिया । राजनशफ ऐश्वर्यासे ईर्षान्वित हो पहले आनगुण्डा है। उक्त किम्बदन्तीसे मालूम होता है, कि किसी संन्यासीके पर भाक्रमण किया | नगर पर घेरा डालनेके समय हिन्दू नामानुसार ध्वस्त विजयनगर पुनः संस्कृत हा फर 'विद्याजन' और मुसलमानों में घोर सांघर्ष उपस्थित हुआ । इस | मामसे प्रसिद्ध हुआ है। विद्याजन शब्द विद्यारपयका अपश भाषण युद्धौ विजयध्वजवंशीय मंतिम राजा मालूम होता है, सम्भवतः विद्यारपयनगर संक्षेपमें विद्यानगर हुआ जम्बुकेश्वर मारे गये। ये राजा निःसन्तान थे । पादशाह है। नुनीजके मतसे देवरायका पुत्र बुक्कराय था। मुक्करायने बगाज- यह सोचने लगे, कि गहो पर किसको गैठाया जाये, राज के सीमान्त तक सारे उड़ीसे पर अधिकार कर लिया था। विद्या परिवारमें ऐसा कोई बचा न था, फि उसे गद्दी पर नगरको ऐतिहासिक पर्याोचना करनेसे मालूम होता है, कि अठोते । मन्तीने भाकर कहा, कि गद्दो पर गैठने लायक रे बुक या श्ले देवराय प्रश्न पराक्रान्त राजा थे । पुर्तगोज । . युद्धमें कोई नहीं बचा है। अन्तमें दशाहने उसो मन्त्री- | - पर्याटक्ने ऐतिहासिक घटनाओं में पड़ी गड़बडो मचा दी है। . को राज्यसिंहासन पर गैठाया। इनका नाम था देवराय ।। क्योंकि अपने ग्रन्थमें उन्होंने लिखा है, कि मादशाह महम्मद किम्वदन्ती है, कि राजा देवराय पंक दिन शिकार सुगमकने सन् १२३० ई०में मानगुगही पर भाक्रमण किया और . . हौठे।