पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/४९३

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विधि ४० जैसे मसूत्र में "अच्के पीछे रहनेसे 'ए' को जगह 'अय' । कार्यों का सम्भव हो, तो जो पूर्वपत्ती है उसे अन्तरङ्ग- . होगा" ऐसा कह कर ४र्य सूत्र में “एकारके बाद अकार | 'तर विधि कहते हैं तथा वही विधि बलवान होती है। रहनेसे उस मकारका लोप होगा" कहनेसे, वस्तुतः जैसे ऋ (लिट् म पु० १२०) म ऊ-म कार्यस्थलमें दोनों सूत्रोंका परस्पर विरोध उपस्थित होता अभी और इन दो प्रकृतियोंमें पहलीको जगह । क्योकि "हरे+व" यहां पर अचं वा स्वरवर्ण 'भार' और दूसरोकी जगह रकार होनेका सम्भव है, इस पोछे और उसके पहले एकार रहनेसे १म सूत्रको प्राप्ति | कारण इस अन्तरङ्गतर विधिपलसे पूर्ववत्तों अकारको तथा अकारके पीछे मकार रहनेसे ४E सूत्रकी प्राप्ति | जगह भार"हो होगा। जिस विधिका विषय पहले और हुई है। पाहाता यहां दृढ़तासे ही दोनों सूत्रों की प्राप्ति पोछे दोनों ही जगह है, उसे सावकाश और जिसका देखी जाती है। किन्तु आचार्याने इन दोनों सूत्रो'में ऐसा विषय संघल पहले है, पीछे नहीं; उसे निरयकाश विधि कुछ भी न कहा कि उससे दोनों में कोई एकं बलवान हो कहते हैं। जिस यिधिके अनुसार कोई वर्ण प्रकृति पा सकता है। ऐसे विरोधस्थलमै हो परिभाषाधेिको । प्रत्ययको नष्ट न करके उहान होता है, उसे आगम तथा जरूरत पड़ती है। इसको मीमांसा लिये "तुल्यबल जो वर्ण दोनोंका उपघातो हो कर उत्पन्न होता है, उसे विरोधे परं कार्य" अर्थात् प्याकरण सम्बन्ध में "दी आदेश कहते हैं। इन दोनेमि मागमविधि बलयान है। सूत्रोंका पलं समान दिखाई देनेसे परवती सूत्र ही कार्य- समो प्रकारको विधियों में लोपविधि हो पलपान है। कारी होगा" तथा "सामान्यविशेषयोर्विशेषविधिर्यवान्'। किन्तु लोप और स्यरादेश (स्वर वर्णका लादेश) इन अर्थात् "बहुतसे विषयों की अपेक्षा पाडे विषयको | दोनों विधियों को प्राप्तिके सम्बन्धमें यदि फिर विरोध विधि "हो पलवान् होगी इन दोनों परिभाषा हो, तो यहां स्वरादेशविधि हो बलपान होगो। विधिक व्यवहार होनेसे • परवर्ती सूत्र अर्थात् इसके सिवा सर्वदा प्रचलित उत्सर्ग और अपपाद विशेषविधिका कार्य ही बलवान् होगा। पर. ! नामकी दो विधियां है। एक तरहसे सामान्य और पत्तों सूनविशेषता यह है, कि उसमें विषपाका | विशेष विधिको नामान्तर मात्र है। अर्थात् "सामान्य. उल्लेख है; क्योंकि पूर्वपत्तों सूत्र में समस्त स्वरवर्ण विधिरुत्सर्ग:" "विशेपयिधिरपवादः" सामान्य विभि पोछे रहने का विषय मऔर परपत्तीसूत्र में सिर्फ एक स्वर- उत्सर्ग और विशेष विधि अपवाद कहलाती है। धर्ण पोछे रहनेका विषय है। फिर इस सम्बन्धमें न्याय है, पूर्णमीमांसा नामक जैमिनिसूनके व्याख्याकर्ता गुरु कि, "अल्पतरविषयत्व' विशेषत्व बहुतरविषयत्व भोर प्रमाकरने विधि के सम्बन्धौ ध्याकरणघटित प्रत्य. सामान्यत्व" अर्थात् जहां कम विषयों का निर्देश है, | यादिका विषय इस प्रकार कहा है। भट्टका कहना है,कि यहां विशेष और जहाँ अनेक विषयोंका निर्देश है, वहां विधिलिङ्ग, लोट और तम्यादि प्रत्ययका अर्थ है तथा सामान्यविधि जाननी होगी। ध्याकरणमें ऐसा कितनी | उसका दूसरा नाम भावना है। अतएव शाम्दीभावना परिभाषाविधियों का व्यवहार है जिनमेसे अन्तरङ्ग, यहि और विधि दोनों पक है। प्रभाकर और गुरु कहते हैं, रङ्ग, सायकाश, निरवकाश, आगम, आदेश, लोप और कि विधिधरित प्रत्ययमान दो' नियोगवाची है, इस- स्वरादेशषिधि सर्वदा प्रयोजनीय है। · लिये नियोगका ही दूसरा नाम विधि है। । प्रकृति अर्थात् शब्द'पा धातुका आश्रय करके गुण, पद्धि, लोप, मागम आदि जो सब कार्य होते हैं, उन्हें । महामहोपाध्याय के यटने भी पाणिनिके नाधिनिमन्त्रणा. भन्तरङ्ग तथा प्रत्ययका आश्रय ले कर जो सप कार्य- मन्त्रणापिन्ट' संप्रभ्न प्रार्थनेषु शिक। (पा १६१) होते हैं, उन्हें बहिरङ्गविधि कहते हैं । इन दोनोंका इस राषके महामाम्यही व्याख्या विधि शब्दका नियोजन अर्थात् विरोध होनेसे अन्तरविधि बलवान होगा। एक | नियोग ऐसा भर्य लगाया है। मान्यकारने लिखा है, "विध्य- प्रकृतिको हो माधय करके यदि इस प्रकार पूर्यापर दो । घोप्टयोः को विशेषा १" "विपिनीम प्रेषप्यम्" "मधीष्टं नाम ___Vol xxI, 103