पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६१६

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५३२ विवर्तकल्प-विवर्तितसन्धि- समान नहीं है यह स्पष्ट दिखाई देता है। तरलशुक्र और | वा पाश्यादि यदि विधर्तित ( उलट पलट ) हो जाए शोणितके मेलसे जो, कठिन देह धनी है, वह भी समयायि.| तो उसे विवर्तितसन्धि कहते हैं।. . . कारणसे तदीय विसदृश (भिन्नाकार ) कार्यको उत्पत्ति चिकित्सा!-पहले घृतम्रक्षित पट्टयनसे भग्नसन्धि- है। सांख्पतत्स्यकीमुदीमें इस विषयमें कुछ आभास | स्थानको लपेट दे। पीछे उस. पस्त पर कुश अर्थात् मिलता है। वहां लिखा है, 'एकस्य सता विवर्तः। वटवृक्षादिको छाल रख कर यथानियम बांध देना उचित कार्याजात नतु वस्तुमत्त' कार्याजात (कार्यसमूह) अर्थात् / है। घांधनेका नियम इस प्रकार है, भग्नस्थानको जगत् एक नित्यपदार्शका विवर्त्तमात्र है, वस्तु (जनपदार्थ) शिथिलभायमे यांधनेसे सन्धिस्थल स्थिर नहीं रहता अर्थात् यह जगत् सत् (नित्य ) नहीं है। तथा ददरूपमें धांधनेसे चमडा सूज जाता और वेदना भ्रान्ति, भ्रम । ७ आवर्त, भौरी। ८ विशेषरूपसे होती है तथा वह स्थान पक जाता है। मतपय साधा. स्थिति। आकाश । रणभावमें अर्थात् शिशिल भी नहीं और दृढ़ भी नहीं, विवर्तकला ( स. पु०) यह फल्प जिसमें लोक क्रमशः ऐसे भावमें घांधना उचित है । सौम्प , ऋतु, अर्थात् उन्नतिसे अवनतिको प्राप्त होता है। हेमन्त और शिशिरकालमें सात दिनके बाद साधारण अर्थात् वर्षा, शरत् और वसन्तकालमें पांच दिन के बाद वियतन (स'• लो०) विकृत् ल्युट् । १ परिभ्रमण, तथा आग्नेय ऋतुमें अर्थात् प्रीष्मकालमें तीन दिन के बाद घमना फिरना। २ पाशपरिवर्तन, करवट लेना। ३ भग्नस्थानको बांधना होता है। परन्तु बन्धन स्थानमें परिवर्तन, रूपान्तर। ४ नृत्य, नाच। ५प्रत्यावर्तन, यदि कोई दोष रहे, तो आवश्यकतानुसार सोल कर फिर- लौटना। ६ घूर्णन, घूमना १७ कानोंसे मल या वायुको । से बांध सकते हैं। निकालने के लिए कानके भौतरमें यन्त्रविशेषका घुमाना। - प्रलेप । मजिष्ठा, यष्टिमधु, रक्तचन्दन और शालि- (सुथ त स०७०)| तण्डुल इन्हें पीस कर घीके साथ शतधौत प्रलेप देना विवत्त वाद (सं० पु०) वेदान्तशास्त्र या दर्शन। इसके | होता है। अनुसार ब्रह्माको सृष्टिका मुख्य उत्पत्तिस्थान और | परिपेक। -यट, गूलर, पीपल, पाकड़ा मुलेठो, आमा, संसारको माया मानते हैं। अर्जुनवृक्ष, आन, कोषान्न ( केवड़ा), चोरक ( गन्धद्रव्य विवत स्थायी कल्प (सं० पु०) यह समय जब लोक विशेष ), तेजपत्र, जम्बूफल, पनजम्यु, पयार, महुआ, अवनतिको पराकाष्ठाको पहुँच कर शून्य दशामें रहता कटहल, घेत, कदम्य, गाव, शालवृक्ष, लोध, सावर लोध, भिलावा, पलाश और नन्दीवृक्ष, इन सब द्रव्यों के शीतल है, फरपान्त, प्रलय। काय द्वारा भग्नस्थान परिपेचन करना होता है। उस विवर्तित (सं० वि०) १ परिवर्तन, बदला हुआ। स्थानमें यदि वेदना रहे, तो शालपणों, चकचंड, हतो, २ भ्रमित, घूमा हुमा। ३ प्रत्यावर्तित, लौटा हुआ। कण्टकारी और गोखरू इन्हें दुग्ध द्वारा पाक कर कुछ ४ घूर्णित, चक्कर मारा हुआ। ५ अपनीत, उखड़ा हुमा, गरम रहते वहां परिपेचन करे। काल और दोपका सरका हुमा। ६जग जिसमें मोच आ गई हो। विचार कर दोपनाशक, भोपके साथ शीतल परिपेक वियतितक्ष (स'. पु० ) अरुणशिखा, मुर्गा। और प्रलेपका भग्नस्थलमें प्रयोग करे । प्रथम प्रसूता विवर्तितसन्धि (, सं० पु०) सन्धियुक्त भग्नरोगभेद । गायका दूध ३२ तोला, फंकोली, क्षीरकोलो, जीवक, आघात या पतन आदिके कारण दरूपसे आहत होने ऋषमक, मूग, उड़द, मेद (अभाव असगंध ), महा-. पर यदि शरीरका कोई सन्धिस्थल या पार्धादिका अप. मेद ( अनन्तमूल ). गुलञ्च, कर्कटङ्गी, शलोचन, गम हो कर विषमाङ्गता और उस स्थान अत्यन्त वेदना पद्मकाष्ठ, पुण्डरी,काष्ठ, ऋद्धि (विजवंदा, घृद्धि (गोरख.. हो, तो उसे विधर्शितसन्धि कहते हैं । अर्थात् . किसो | मुडो), दान, जीवन्ती. और मुलेठो, कुल मिला कर भारणसे आघात लगने पर शरीरका को सन्धिस्थान | २ तोला तथा जल आध पाव ले कर पाक करे । पाक शेष