पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६१८

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विवर्तकल्प-विचितसन्धि समान नहीं है वह स्पष्ट दिखाई देता है। तरलशुक्र और ! वा पायोदि यदि विवर्तित ( उलट पलट ) हो जाय, शोणितके मेलसे जो कठिन देव बनी है, वह भी समघायिः तो उसे विधर्शितसन्धि कहते हैं। कारणसे तदीय विसदृश (भिन्नाकार ) कार्याको उत्पचि चिकित्सा !--पहले घृतम्रक्षित पट्टयनसे भानसन्धि है। सांख्यतत्त्व कौमुदीमें इस विषयमे कुछ आभास स्थानको लपेट दे। पीछे उस वस्त्र पर कुश अर्थात मिलता है। यहां लिखा है,-'एकस्य सता विधतः वटवृक्षादिको छाल रख कर यथानियम बांध देना उचित कार्याजात नतु वस्तुमत्' कार्याजात (कार्यसमूह) अर्थात् | है। बांधनेका नियम इस प्रकार है, भग्नस्थानको जगत् एक नित्यपदार्शका विवर्तमान है, वस्तु (जनपदार्श), शिथिलभाचमे यांधनेसे सन्धिस्थल स्थिर नहीं रहता अर्थात् वह जगत् सत् (नित्य ) नहीं है। तथा ददरूप धांधनेसे चमड़ा सूज जाता और वेदना ६भान्ति, भ्रम । ७ आयत, भारी। ८ विशेषरूपसे | होती है तथा यह स्थान पक जाता है। अतपय साधा. स्थिति। आकाश। रणभायमें अर्थात् शिथिल भी नहीं और दृढ़ भी नहीं विवर्तकला (सपु.) वह कल्प जिसमें लोक क्रमशः ऐसे भाव यांधना उचित है । सौम्य ऋतु अर्थात् उन्नतिसे अवनतिको प्राप्त होता है। हेमन्त और शिशिरकालमें सात दिनो वाद साधारण निवर्तन (स. लो० ! विकृत् न्युर । १ परिभ्रमण, अर्थात् यो, शरत् और यसन्तकालमें पांच दिन के बाद तथा भाग्नेय तुमें अयोत् प्रीष्मकालमें तीन दिनके बाद घमना फिरना। २ पार्श्वपरिवर्तन, करवट लेना। ३ | भग्नस्थानको बांधना होता है। परन्तु वन्धन स्थानमें परिवर्तन, रूपान्तर। ४ नृत्य, नाच । ५प्रत्यावर्तन, यदि कोई होप रहे, तो आवश्यकतानुसार बोल कर फिर लौटना । ६ घूर्णन, घूमना १७ कानोंसे मल या वायुको | से बांध सकते हैं। निकालनेके लिए कानके भीतरमें यन्नविशेषका घुमाना । ___ प्रलेप । मअिष्ठा, यष्टिमधु, रक्तचन्दन और शालि- (सुभत स०७०)| तण्मुलन्द पास कर घाक साथ शतधात प्रलप ठेप देना विवत्त याद ( स० पु०) वेदान्तशास्त्र या दर्शन। इसके | होता है। अनुसार ब्रह्माको सृष्टिका मुख्य उत्पत्तिस्थान और परिषेक। -घट, गूलर, पीपल, पाक, मुलेठी, भामड़ा, संसारको माया मानते हैं। अर्जुनवृक्ष, आन, कोपान ( केवड़ा), चारक (.गन्धद्रव्य विशेष), तेजपत, जम्बूफल, धनजम्यु, पयार, 'महुआ, वियत्त स्थायी कल्प ( स० पु० ) वह समय जय लोक अवनतिको पराकाष्ठाको पहुँच कर शून्य दशा में रहता कटहल, वेत, कदम्ब, गाव, शालवृक्ष, लोध, सावर लोध, : भिलावा, पलाश और नन्दीवृक्ष, इन सब द्रव्यों के शीतल है, कल्पान्त, प्रलय। काथ द्वारा भग्नस्थान परिपेचन करना होता है। उस विवत्तित (स० वि० ) १ परिवर्तन, बदला हुया ।। स्थानमें यदि घेदना रहे, तो शालपणों, चावंड़, वृदती, २ भ्रमित, घूमा हुआ। ३.प्रत्यावर्तित, लोरा हुमा । कण्टकारी और गोखरू इन्हें दुग्ध द्वारा पा कर कुछ. ४ घूर्णित, चक्कर मारा हुआ । ५ अपनीत, उखड़ा हुआ | गरम रहते यहां परिपेचन करे। काल और दोपका सरका हुआ। ६ मग जिसमें मेचि आ गई हो। विचार कर दोषनाशक औषधके साथ शीतल परिपेक विधर्तितक्ष ( स० पु० ) अरुणशिखा, मुर्गा। और प्रलेपका भानस्थलमैं प्रयोग करे । प्रथा प्रसूता विवर्तितसन्धि (सं० पु०) सन्धियुक्त भगरोगभेद । गायका दूध ३२ तोला, कंकोली, क्षीरकोलो, जीवक, आघात या पतन आदिके कारण दूदरूपसे आहत होने ! ऋपमक, मूंग, उड़द, मेद ( अभाव में असगंध ), मधा पर यदि शरीरका कोई सन्धिस्थल पा पार्थादिका आप- | मेद ( अनन्तमूल ) गुलञ्च, कर्करशृङ्गो, विशलोचन, गम हो कर विपमाङ्गता और उस स्थानमें अत्यन्त घेदना } पद्मकाष्ठ, पुण्डरो काठ, ऋद्धि (विजवंद), धृद्धि (गोरख... हो, तो उसे विवर्शितसन्धि कहते हैं । अर्थात् किसी | मुंदी), दाम्य, जीवन्ती. और मुलेठो, कुल मिला कर झारणसे आघात लगने पर शरीरका कोई सन्धिस्थान | २ तोला तथा जल आध पाव ले कर पाक करे । पाक शेष ।