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विधाह-विधि
लिया है, कि सय वर्गों के लिये सात वर्णके उपरान्त : . . . "स्वगोपाभ्रश्यते नारी विषाहात् सप्तमे परे।
कन्याओं का. विवाहकाल प्रशरत है और भी लिखा है, ! .पतिगोत्रेण कर्तव्या तस्याः पिपडोदकक्रियाः ॥" .... ।
कि अयुग्म वर्णमें विधाह करनेसे कन्या दुर्भगा और युग्म :
। .. (उद्वाहतत्व) .
वर्णमें विवाह करनेसे विधया होती है, अतएप कन्याके : विवाहादि संस्कार कार्या नान्दीमुनधाद्ध करके '.
गर्भान्वित युग्म वर्णमे विवाह कर देनेसे कन्याये ! करना होगा! विवाहके दिन प्रातःकाल आम्युदयिक
पतिव्रता होती हैं । जम्ममाससे तीन मासके श्राद्ध कर रातको कन्यादान करना होता है । विवाहके
ऊपर होनेसे अयुग्म वर्ष और भीतर होनेसे गर्भ- आरम्मके वाद यदि अगौच हो जाये, तो उसमें कोई .
से युग्म वर्ण होता है। वात्स्य आदि मुनियोंने ज्योति प्रतिवन्धक नहीं होना। विवाहके छारम्भ शब्दसे वृद्धिः .
शास्त्रमें जन्ममास ले कर तीन मास तक जो गर्भान्वित ! श्राद्ध समझना होगा। पृद्धिश्राद्ध करनेमें प्रवृत्त होने पर
युग्म घर्ष होता है, उसोको कन्यागों के विवाह के लिये शुभ यदि सुनाई दे, कि जन्म या मरण आदि किसी तरइका-
दिन स्थिर किया है । यह युग्म और अयुग्मकी गणना अशीच हुआ है, तो . यह विवाह कर डालना चाहिये !
भूमिष्ठ और गर्भाधानसे करना चाहिये अर्थात् भूमिष्ट इसमें कोई दोष नहीं होता। क्योंकि शास्त्रमें लिखा है, .
होने के बादसे गणनासे अयुग्म वर्ष शुद्धकाल और गर्भाः। कि प्रत, यज्ञ, विवाद, श्राद्ध, होम, अर्चना और जप इन .
धानके यादसे गणनासे युग्म यर्थ शुद्धकाल है। . । सव कौका आरम्भ हो जाने के बाद यदि अशीच हो, ,
विधाहर्ग अकाल शादिका दोपाभाव-कन्याफे दश तो यह अशीच भारम्भ कर्मका धाधक न होगा। किन्तु . .
वर्ग बीत जाने पर उसके बियाहमें अकाल मादि दोष आरम्भके पहले गशौच होते. पर यह, व्याघातक होगा! -
नहीं लगता। शाससमें लिखा है-गुरु शुक्रके याल्य, वृद्धिश्राद्ध ही, विवाहका आरम्भ समझना चाहिये।
पृद्ध और अस्तजनित जो अकाल आदि होते हैं, उस ____नान्दीमुप श्राद्धका कर्तृय. निरूपण-वियाहादि ।
समय पन्याका विवाह नहीं होना चाहिये । किंत कार्यो में नान्दोमुत्र श्राद्ध करना चाहिये। इस विषयमें -
कन्याकाल अर्थात् दश वर्णकाल बीत गया,हो, तो उस शास्त्र-विधि इस तरह है-पुत्रफे, प्रथम विवाहमें हो।
कन्याके विवाहमें अकाल आदि दोष नहीं देखे जाते। पिताको नान्दामुख श्राद्ध करना कर्तव्य है। पुत्रका यदि
पिता, पितामह, भ्राता, सफुल्य, मातामह और मातायें दूसरा विवाह हो, तो पुत्र स्वयं ही. श्राद्धका अधिकारी
सभीको कन्यादान करनेका अधिकार है। .. होगा,,पिता नहीं । मतपय इस नान्दोमुख श्राद्ध में पिता- .
पिताको स्वयं कन्यादान देना कर्तव्य है। स्वयं अस के मातामह आदिका उल्लेम्स न कर उनके अपने माता. ..
मर्थ होने पर यह अपने ज्येष्ठ लडफेको आशा दे, कि महका उल्लेख करना होगा। अर्थात् जो श्रोद्ध कार्य :
यह अपनी बहनका दान करे । इन दोनों के दाद | करेगा, उसीके नाना अर्थात् मातामहका उल्लेख होगा। .
मातामह, मामा, सकुल्य और पांधव यथाक्रम कन्यादान। पुतके विवाहमें पिताके न रहने पर वह स्वयं श्राद्धका .
के अधिकारी हैं। इन सोंके अभावमें माता ही अधि. अधिकारी है। गतः उसके मातामहादिका श्राद्ध होगा।
कारिणी होती हैं। कितु ये सभी प्रकृतिस्थ होने कन्याके विवाहमें पिता ही श्राद्धका अधिकारी होता है।
विधाहमें, शान्तिकर्म-विवाहफे भावो अनर्धा प्रति
विवाहके बाद कन्या पर उसके स्वामोका पूर्ण कारके लिये. सुवर्णदान.भौर प्रहोंको शान्ति के लिये हम
स्वामित्व हो जाता है और पिताफा स्वामित्व खत्म करनेकी विधि है। कारण, शास्त्र में है, कि कोई इच्छा ,
हो जाता है, सुतरां कन्या विवाहके बाद पतिके गोत्रा- करे या न करे, अवश्यम्भावो घटना पाप हो आप घर
नुसार उसके सब कार्य होंगे। उसको मृत्यु हो जानेके जाती है। इसीलिये अवश्यम्मायो शुभाशुभफे विषय में
वाद ही उसके पति के . गोवानुसार हो।..पिण्डोदकादि प्रहादि दोपको शान्तिके निमित्त विवाह के पूर्व प्रहहोम
क्रियायें,
. . . .और सुवर्ण आदि दान करने चाहिये।. . . .
चाहिये । ..
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६७०
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