पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७

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विस्ति सम्पन्न होनेसे रोगीको सुखशय्या पर शयन करा कर । को अयसन्नता, उदराध्मान, शूल, श्यास तश पकाशयमें नींद लानेकी कोशिश करनी चाहिये। । गुरुत्य उपस्थित होता है। ऐसी हालतमें निरूहयस्ति - अनुवासन क्रियाके याद यदि दिना उपद्यके वायु | अथवा तीक्ष्ण औषधके साथ तीक्ष्णफ लवतिको प्रयोग भार मलके साथ स्नेह बहुत जल्द निकल आये, तो उस | करे। घायुका अनुलोमकारक, मलशोधक, अधच स्निग्ध. व्यक्तिको अनुवासनक्रिया अच्छी तरह हुई है, जानना कारक विरेचन तथा तीक्ष्ण नस्य भी इस अवस्था होगा। इस प्रकार स्नेह निकलनेसे' यदि भून मालूम प्रशस्त है। ' पढगे, तो सायंकालमें सुंसिद्ध अन्न या लघुद्रव्य खिलाना • स्नेहवस्तिके नहीं निकलनेसे यदि कोई उप- होगा। दूसरे दिन रोगीको उष्ण अल पा धनिये और द्रव न हो, तो जानना चायिये, कि रुक्षतासे प्रयुक्त हो वह 'सोठका काढ़ा बना कर पिलाना होगा। इस नियमके | नं.निकलेगी। अतएव उस समय किसी प्रकार प्रतीकार- अनुसार ६, ७, ८ या ६ धार स्नेहयस्तिमा प्रयोग कर पीछे | को चेष्टा न करनी चाहिये। एक दिन रातको अपेक्षा निरूहयस्तिका प्रयोग करें। . . . . करनी होगी, यदि उसमेंसे स्नेह न निकले, तो संशोधक औषध द्वारा दोपको शान्ति करे। किन्तु स्नेह निकालने ___पहले जो पस्तिप्रयोग किया जाता है उसके द्वारा मूत्रा के लिये फिरसे स्नेहका प्रयोग न करना होगा, करनेसे शय और पक्षण स्निग्ध होता है। दूसरी बार शिरोगत विशेष अनिष्ट होता है। गुलञ्च, एरण्ड, पतिकरस, पड़ स व यु विनष्ट होती है, तीसरी बार 'ल और वर्णकी उत्कं- कत्तृण, शतमूली, मिण्टी और काफजला प्रत्येक एक पल, पता, चौथी बार रस, पांचवीं बार रक्त, छठी धार मांस, जौ, उड़द, तोसी, येर और कुलथी, दो दो पल, इन्हें एक सातवीं बार मेव,- आठवीं बार अस्थि तथा मथमी धार साथ मिला कर चार द्रोण जलसे सिद्ध करे। पीछे एक यस्तिप्रयोग द्वारा मजा स्निग्ध होती है। अठारह दिन द्रोण (६४ सेर ) शेष रहते उतार कर उससे १६ सेर यथाविधि पस्तिप्रयोग करनेसे शुक्रगत दोप प्रशमित तेलपाक फरे। कलकार्य जीयनोयगणकी औषध प्रत्येक होता है। प्रति अठारहवें दिन में जो व्यक्ति नियमपूर्वक । एक पल करके ग्रहण करे। इस तेलसे यदि अनुवासन- पस्तिक्रिया करता है यह हाथोके समान घलयान घोडे- यस्तिका प्रयोग किया जाय, तो सभी प्रकारके यातजरोग के समान घेगवान् और देवताके समान प्रभावशाली विनष्ट होते हैं। . . । होता है। . . . . . . . • रुक्षता और घायुका प्रकोप रहनेसे प्रति दिन स्नेद. ___ अनुपयुक्त नलादि द्रध्य द्वारा यस्तिक्रियाफे दोपसे अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं, इस कारण विशेष धम्तिका प्रयोग करे, किन्तु अन्यान्य स्थानों में अग्निमान्ध सावधान हो कर वस्तिक्रिया करे । स्नेहपानसे माहारादि- होनेकी आशङ्कासे तीन दिनके अन्तर पर यस्तिप्रयोग को जो व्यवस्था है, इसमें भी उसी - व्यवस्था अनुसार कर्तव्य है । रुक्ष व्यक्तिगोंको अपमात्रामें दीर्घकाल तक | चले। . . स्नेह प्रदान करनेसे जिस प्रकार कोई अनिष्ट नहीं होता, निस्वस्ति-निरूहयस्ति कारणभेदसे अनेक प्रकारको उसी प्रकार स्निग्ध व्यक्तियोंको अल्पमानामें निरूह- है। यह दोष और धातोको यथास्थानों स्थापन करती घस्तिका प्रयोग करनेसे भी कोई · अपकार न हो कर | | है, इस कारण इसका एक नाम मास्थापन है। निरूद- विशेष उपकार होता है। . . . . . यस्तिकी श्रेष्ठमाना प्रस्थ ( दाई,सेर), मध्य मावा . पस्तिप्रयोग करनेसे यदि वह अच्छी तरह भीतर १प्रस्थ (ो सेर) और होनमाता डेढ़ सेर है। घुम फर प्रयोग करते हो.वाहर निकल आये, तो पुनर जो व्यक्ति अत्यन्त स्निग्ध, उक्लिष्ट ट्रोपसम्पन्न, उर .पूर्वमात्रासे अल्प माला प्रयोग करे। .. .. शतरोगाकान्त, कंश तथा उदराध्मान, पमि. हिका, अर्श, घमन विरेचनादि द्वारा यदि शरीरको शोधन न.करः कासं, श्वास, गुह्य रोग, शोध, गतीसार, विसूचिका, . के अनुवासनवस्ति प्रयोग किया जाय, तो उस.स्नेहके | कुष्ट, मधुमेह और जलोदरादि रोगामिभूत व्यक्ति पर्व मलफे साथ संयुक हो कर बाहर न निकलनेसे शरीर- गर्भवती स्त्रोको आस्थापन प्रयोगम, करें। , Volk. AXI, ३ . . . . . . . . . . . .