विपरणत:--विदात
विषण्णता (सं० स्त्री०११ विषण्णका माय या धर्म। विपदंश (सपु०) मार्जार, विल्ली।
२ जड़ता, वेवकूफी। पर्याय -जाड्य, मा, विषाद, विपशक (सं० पु०) विषद श देखो।
अवसाद, साद । (हेम)
विषदंष्ट्रा ( स० स्रो०) विषयुक्का दंद्रा। १ सर्पदंष्ट्रा,
विषण्णाङ्ग (स'० पु०) शिव। (भारत १३३१७१२८ ) | साँपके दांत । २ सर्प कङ्कालिका लता । ३ नागदमनी ।
वियतन्त्र (सं० क्लो०) वैद्यकके अनुसार वह प्रक्रिया जिसके विषद ( स० क्लो० ) वि.सद्-अच् । १ पुष्पकाशीन,
द्वारा सांप आदिका चिप दूर किया जाता है। होराकसोस । लियां टाप् । २ अतिविषा, अतीस विष'
विपतरु ( स० पु०) कचेलक यक्ष, कुचला।
ददातोतिबिष-दा-क । (पु.)३ मेघ, वादल । ४ शुक्ल.
विपता (स स्रो०) विपका भाप या धर्म, जहरीलापन । वर्ण, सफेद रंग । (त्रि०) ५ शुक्लघणं विशिष्ट,
विषतिन्दु (स० पु०) १ विपद् म, कुचाल, विपतद।। सफेद रंगका। ६ निर्मल, स्वच्छ। विषदाता, विष
२ कारस्कर वृक्ष । ( राजनि० ) ३ कुपोलु । (भावप्रकाश ) | देनेवाला।
विषतिन्दुक (स.पु० ) विषतिन्दु देखो। . विषदन्त (स.पु. ) विडाल, विल्लो। (वैद्यकनिध० )
विपतिन्दुकज (स' क्ला०) १ मधुर तिन्दुक फल । २ कार- विपदन्तक ( स० पु. ) विष दन्ते यस्य कन् । सर्प,
सकर फल,'कुचिला फल। .
सांप।
विपतिन्दुकतैल-वातरकाधिकारोक्त तैलोषधविशेष । विषदमूला (सं० स्त्री०) माकन्दी नामक पौधा जिसके
'प्रस्तुतमणाला-तिलतैल ४ सेर काढ़े के लिये कुटा हुआ पत्तोका साग होता है।
कुचलावीज ४ से, पानी ३२ सेर, शेष ८ सेर, सहि विषदर्श नमृत्युक (स.पु.) विषस्य दर्शनेन मृत्युरस्य
अनके मूलकी छाल २ सय जल १६ सैर, शेप ४ सेर, कन् । चकोर पक्षो।
मादेका मूल २ सेर, 'जल १६ सेर, शेर ४ सेर; काला | विपदा ( स० स्त्री० ) अतिविपा, अतीस ।
धतूरा २ सेर, जल १६ सेर शेष ४ सेर; वरुणछाल विपदाता (स'० लि०) मिपादान देखो ।
२सर, जल १६ सर, शष ४ सेर, चितामूल २ सेर, | विषदातृ (स' त्रि०) विषप्रयोक्ता, 'वह जो किसोको
जल १६ सर, शंप ४ सेर। सम्हालूपत्रका रस ४ सैर मार डालने या चेहोश करनेके अभिप्रायसे जदर दे।
(रसके अमायमें काढ़ा), थूहरका पत्तियाका रस ४ | निम्नोक लक्षणानुसार विपदाताको जाना जा सकता
सेर (ममायमें क्वाथ), असगंधका काढ़ा 8 सेर, जयन्ता- | है। जो विप देना है उसे यदि इस विषयमें कुछ पूछा
पत्नका रस ४ सेर ( रसके अभाव काढ़ा ), ककार्थ जाय तो वह कुछ बोलता नहीं है, चालने में मोह मा जाता
लहसुन, सरलकाष्ठ, मुलेठा, कुट, सन्धय, विट, चिता-1 है। मूढ़की तरह यदि दे। पाते' योलता भी है, तो
मूल, हरिदा, पीपर, प्रत्येक १ पल। इस तेलकी उसका कोई मर्य नहीं निकलता। यह फेवल खड़ा
मालिश करनेसे प्रथल वातथ्याधि, कुष्ठ, वातरक्त, विवा रहता और हाथकी उगलो मटकाता है तथा पैरकी
णता और स्वगदोष दूर होते है।
उंगलीसे धीरे धोरे जमोन कोड़ता है अथवा अकस्मात्
विषतेल-कुष्ठरोगाधिकारोक तैलोपविशेष ।। प्रस्तुत. यैठ जाता है। वह हमेशा कांपता रहता है और 'मय.
प्रणालो-कटुतैल ४ सेर, गोमूत्र ४६ सेर । कलकद्रव्य - भीत हो उास्थित व्यकियों की एक किसे देखता है।
बहरफरशीज, दरिदा, दामहरिद्रा, अकवनका मूल, वह शोण और उसका मुख विवर्ण हो जाता है। यह
तगरपादुका, करवीमूल, पत्र, कुट, हाफरमालो, रक किसी एक वस्तुको नाग्यूनसे काटता है तथा दीन भायसे
चन्दन, मालतोपन, सम्हाल्पन, मजोठं, छतिवनमूलको बार बार मस्तकके वालोको स्पर्श करता है। यह
छालका प्रत्येक ४ तोला, 'विष १६ तोला। इस तेलको कुपथसे भागनेको चेष्टा करता है तथा पार वार चारों
मालिश करनेसे अनेक प्रकारके कुष्ठ और व्रण नष्ट ओर ताकता है। यह कमी कभी विचेतन और विप-
होते हैं।
रात स्वभावका हो जाता है। विशेष अभिडता नही'
Vol. IXI, 107
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७५७
Jump to navigation
Jump to search
यह पृष्ठ शोधित नही है
