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पिसिनी-विधिको
फैलनेवाला। पर्याय–विसृत्वर, विस्मय, प्रसारी। । भोजन करना हो अजीर्ण रोगका मूल कारण है। पशुको
(अमर ) तरह अपरिमित भोजन कर अनभिष्ट व्यक्ति विसूचि हो
घिसिनी (स. स्त्री० ) विसमस्त्यस्याः इति विस् पुष्क ! आदि रोगोंके मूलीभूत अजीर्ण रोग द्वारा आक्रान्त होते
रादिभ्यश्च इति इनि, डोप । १पनिनो, कमलिनी।। हैं। अजीर्णसे विसूचिका रोग होता है। आमाजी
२ मृणाल, कमलको नाल |
रोगीके शरीर और उदर गुरु, यिमिपा, कपोल और चक्षुः ।
विसिर (स त्रि.) शिशिर, शिरारहित ।
गोलकमें शोध और उद्गारवाहुल्य होता है। किन्तु मधुर
विसिल्मापयियु (स.नि.) विस्मापयितुमिच्छुः नि | आदि जो कुछ द्रष्य आहार किया जाये, उमसे कुछ भी .
स्मि-णिच-सन् । विस्मय करनेमें इच्छुक । अम्ल नहीं उत्पन्न होता। .
विसुकल्प (स पु०) राजपुत्रभेद। (सारनाथ ) लक्षण-विसूनिका रोगों मूर्छा, अतिशय गलमेर,
विसुरुत् ( स० वि०) मन्दकारी, मनिष्ट करनेवाला। यमन, पिपासा, शूल, भ्रम, हाथ और पैरमें झिनझिनी
विसुकत ( स० वि०) अधर्म, पाप ।
और जंभाई, दाद, शरीरको वियर्णता, कम्प, हृदया
विसुख (सं० लि. ) विगतं सुखं यसा । सुखरहित । घेदना और शिरमें दर्द होता है। . . .
दिसुन (स.नि.) विगतपुर, सुतरहित। ___ उपद्रव अनिद्रा, ग्लानि, कम्प, मूत्ररोध और
विसुराद (सं०नि०) सुहविदोन, बन्धुरहित ।
माहानता ये पांच विसूचिका प्रधान उपद्ध हैं। इन
विसूचिका ( स० स्रो०) विशेपेण सूचयति मृत्युमिति । सब उपयोंके होनेसे समझना चाहिपे, कि रोगोक
वि.सूच अच् स्त्रियां डोष विसूनि स्वार्थ कन् टप जोबनकी भाशा यहुत कम है।
रोगभेद, अजीर्ण रोग, हैजेके बीमारी। . . अरिष्ट लक्षण-इस रोगमें यदि दांत, ओष्ठ' और
भावप्रकाशमें लिखा है, कि मजीर्णके कारण किसीके नख काले हो जाये, आंखे नीचे घस जाये और मोह, .
पेटमें यदि सूई के छुभनेको तरह वेदना होने लगे, तो ऐसी यमन, क्षीणज्यर हो और सन्धियां शिथिल हो जाये,
अवस्थाको लोग विसूचिका कहते हैं। जो व्यक्ति आयु: तो समझना चाहिये, कि रोगांके वचनेकी आशा कम
घेदशास्त्रमें व्युत्पन्न और परिमित आहार करने हैं, ये है। (भावप्रकाश भजीर्यारोगाधिकार ) ।
काभी विसूचिका रोगसे पीड़ित नहीं होते। भक्ष्योमक्ष्य आयुर्वेदशास्त्रमें यह रोग अजीर्ण रोगके अन्तभुक्त
के सम्बन्ध मनभिश व्यक्ति, इन्द्रियपरघश और पशुकी माना गया है। यह अति भयङ्कर और माशुप्राणनाशक
तरह अपरिमितमोजी, ये सब व्यक्ति हो उक्त रोगसे | और सफामक है। अतिवृष्टि, वायुको आर्द्रता या
आक्रान्त देखे जाते है।
स्थिरता, अतिशय उणवायु, अपरिष्कृत जलयायु,
___मामाजोर्ण मादि रोग अतिशय बढ़ जाने पर उसीसे अतिरिक्त परिश्रम, आहारका मनियम, भय, शोक या
विसूचिका भादि रोग उत्पन्न होते हैं। अर्थात् मामा- | दुःख आदि मानसिक यत्रणा, अधिक जनपूर्ण स्थानों में
ओर्णसे विसूचिका, विदग्धाजीर्णसे मलसक और | रहना, रातका जागना, शारीरिक दुर्यलता आदि, इस
विष्टग्धाजोर्णसे विलम्विका रोग होता है। . . रोग निदान कहे जा सकते हैं। उदरामय नहीं हो
अत्यन्त जलपान, विषमाशन; क्षधा और मलमूत्रादि कर भी जिन सव व्यक्तियों का विसूचिका रोग हो जाता
का वेगधारण, दिनमै साना और रातका जागना इन ! है, उनमें पहले शारीरिक दुर्घलता, भङ्गम कम्पन, मुखधा.
सब कारणांसे मानयोका नियमित, लघु, अपच यथा. की घिवर्णता, उदरके ऊध्यभागमें घेदना, कानमे। तरह
कालभुक्त आहार भी परिपक्व नहीं होता, पिपासा, शरदका शब्द श्रवण, शिsitडा और शिरका घुमेना,
भय और काधपीड़ित, लुग्घरोगो, दैन्यप्रस्त और मसूया. आदि पूर्वरूप प्रकाशित होते देखे जाते हैं।
कारो इन लोगोंका भी भुक्त भन्न सम्यक्रूपसे. परिपाक ..इसका साधारण लक्षण युगपद् भेद और घमन ।
नहीं होता। किन्तु उपर्युक्त कारणोंमेस अतिमात्रामें | इसीसे इसको भेदधमन भी कहते हैं। पहले दो एक .
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/८१६
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