पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तसाचार पदाभ्याइ-माणु संशयवासका। प्रकार मही परत, विविधता जो अपना बोध मनपारी हविष्य मवेनिस ताम्बूसनस्पृशेदपि। १, परमेश्वरि ! ऐसे पानीको दोषा देनी चाहिये। शुजाता विना नारी काममावे नहि स्पृशेत् । सत्य कहता, मेरा बाना कभी पन्यवान होगा। परनिय कामभावो दृष्टा संग समुत्सृजेत् । पनाम वा भमसे पानी मब देने, सचमुच ही देवो- संयोन्मत्स्यमांबानि पशवो नित्यमेव च । के मापका भागी होना पड़ेगा। सतरा बहुप्रकार गन्धमास्यानि बसागि चीराणि प्रभजेम्न । पाचारोको पह कहत..। बमको कभी मोष वा सिद्धि देवालये सदा तिष्ठेदाहारा ग्रह प्रजेत् । नहीं होती। पखाचार कितनाही कोंगकर, किसी कम्यापुत्रादिवात्सल्य र्यानित्यः समाकुसः । तरह भी सिधिनहीं होती। देवि! पिवळी पाना ऐश्वर्य प्रार्थव यद्यस्ति तत्तु न त्यजेत् । है कि इस जम्ब दोपमें ब्राह्मण कभी पान होंगे। पदादान समाकुर्याद् यदि अन्ति धनानि च । बङ्गालमें तांत्रिक कहनेसे प्रधानत: वामाचारियोंका कार्ययोहान् क्षिपेत् सर्वानहंकारादिकांस्ततः । ही बोध होता है। किसीके मतमे ये वेदविका विपरीत विशेष महादेवि कोध संवर्मयेदपि । पाचरण करने के कारण वामाचारीक नामसे मगहर है। कदाचिदक्षियन्ना पशवः परमेश्वरि । बङ्गालके तांत्रिकोंमें वामाचार और दक्षिणाचार दोनों सस यल पुनः सत्यं नान्यथा वचन मम । हो पाचार मिश्रित देखने में पाते है। किन्तु असली भज्ञानाद् यदि वा लोभान्मन्त्रदान करोति च। तांत्रिकगण रस बासको नहीं मानते। सत्य पत्य महादेवि देवीशापं प्रमायते । वामकेवरतबके ५१३ पटलमें लिखा- इत्यादि बहुषाचारा कचिम: पशोर्मतिः । "आचारो द्विविधो देवि वामदक्षिणमेदतः । तथापि च न मोक्ष: स्यात् सिद्विवव कदाचन । जन्ममात्र दक्षिणं हि अभिषेकेन वामकम यदि चंक्रमणे शक खड्गपारे सदा नरः। देवि : वामाचार और दक्षिणाचारके भेदसे पाचार पश्वाचार सदा कुर्यात् किन्तु सिद्धिन जायते । दो प्रकारका है । जन्ममात्रमें दक्षिा और पभिषेक होते' जम्मूदीपे कलौ देवि ब्राह्मणो हि कदाचन । पर वामाचारी होता है। . पर्नस्यात् पशुर्नस्यात् पशु स्यात् शिवाझया ॥" भाव। उक्त सात पाचार निर्दिष्ट होने पर भी संब- जो पञ्चतत्व ग्रहण नहीं करते पोर न उसकी निन्दा में प्रधानतः तोन भावीका विषय बर्षित । यथा-प. जी करते है, जो शिवोत कथाको सत्य मानते और भाव, वोग्भाव और दिव्यभाव । वामकेशरतबके मतो- पापकार्य को निन्दनीय समझते १३ ही पण नामसे "जन्ममा पशुमावं वर्षषोड़शकावधि । प्रसिब है। तुम्हारे सन्देहको दूर करनेके लिए मैं उनका ततश्च वीरमावस्तु यावत् पश्चातो भवेत्। पाचार जाता है, सो सुनो। जो प्रतिदिन विथ द्वितीयांशे वीरभावस्तृतीयो दिव्यभावकः । पाहार करते हैं, ताम्ब स नहीं छूत, ऋतुखाता अपनी एवं भावत्रयेणैव भावभक्य भवेत् प्रिये । खोके सिवा पच विसीको भी कामभावसे नहीं ऐक्यज्ञानात् कुलाचारो येन देवमयो भवेत् । देखते, परखोके कामभावको देख कर उसका साथ त्याग मावोहि मानसो धो मनसैव सदाभ्यसेत् ।" देत १, मत्स्य-मांस कभी भी पाप नहीं करते, गन्धमास्य जन्मकालसे सोलह वर्ष तक पचभाव, इसके बाद पण और चौर नहीं लेते, सर्वदा देवालयमें रहते हैं, हितोयांचम पचास वर्ष तक वीरभाव, उसके बाद पौर पामारके लिए घर जाते हैं. पुववन्यानोको पति तोयांशमें दिव्यभाव होता है। इन भावनयसे भावऐक्य मष्टि से देखते है, ऐजय को नहीं चाहते वा जो होता है । ऐक्यवानसे खुलाचार होता है, इस कुखाचार के उसको भी खाग नहीं बरते, धन होने पर सर्वदा दरि. नारा हो मानव देवमय एषा करता है।भाव हो मानस ड्रोको दाग कमी वा पीर पारादि धर्म मन ही मन सर्वदा इसका अभ्यास करना