पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२२९

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ना मध्यतः श्रीमान् शिषया सह चोत्तमः। । दिव्य और वोरभाव पास करता है, वह निःसन्दरे। वैष्णवो धीर: पशूगं ममः स्मृतः । वाग्छाकल्पतरलताका पधिपति है अर्थात् वह चाहे तो भाना देवतानां च सेवां कुर्वन्ति सर्वदा ॥ कर सकता है। पानामधमा: प्रोका नरकास्था न संशयः । ____ अभिषेक । तात्रिक कार्यादिका प्रबल साधन करने के वत्सेवा मम सेवा च ब्रह्मविषण्वादिसेवनम। लिए पहले अभिषिता लाना हो पड़ता है, अभिषक कृत्वान्यर्वभूतानां नायिकानां महाप्रभो। विना हुए चक्र पूजा का माधनमें अधिकार नहीं होता। यक्षिणीनां भूतिनीनां ततः सेषां शुभ दाम् ॥ निरुत्तरतंत्रमें (पटलेमें ) लिम्बा है- यः पशु ब्रह्मकृष्णादि सेवांच कुरुते सदा। "अभिषिको भवेत वीरो अभिषिका व कौलि की। तथा श्रीतारकब्रह्मवा ये वा नरोत्तमा. ॥ एवं'च वीरशक्ति च वीक नियोजयेत् । तेषामसाध्याभूतादि देवता सर्वकामदा । नाभिषिको वसेश्चके नाभिषिक्ता च कौलिकी । वर्जयेत् पशुमार्गेन बिष्णुसेवापरा अनः ॥" बसेच रौरवं याति मत्य सत्यं न संशयः ॥" ओ प्रति दिन दुर्गा ना, विश्णु पूजा और शिवपूजा वीर और कुलम्बो दोनों हो अभिषिम हो, ऐमे वोर अवश्य करता है वही पशु उत्तम है । पशुप्रीम जो शक्ति और शक्तिको चक्रमें नियुक्त करें जो अभिषित नहीं हुआ सह शिवपूजा करता है अथवा जो व्यक्ति धोर और हो, ऐसे पुरुष और कन्नग्लोका चक पर नहीं बैठने देना केवल वैषणव है, उसको मध्यम तथा पशुमि जो चाहिये। यदि बैठे तो वह राच मुच ही मरकको भूतादि उपदेवताको मर्वदा सेवा करता है, उमको जायगा। अधम कहते हैं। अधम निश्चय नरकस्थ होता है। जो अभिषेक साधारणतः पटाभिषेक या वर्गाभिषेक नामसे पर पापकी. मेग और विष्ण अादिको सेवा कर के बाद में प्रसिद्ध है। यथाविधि दाक्षित हो कर जो गुरुका प. सबभूत, नायिका, यक्षिणी, भूतिनो आदिको सेवा करता देश, सत और तंत्रिक परिभाषा समझ कर उनके है, उसको भी शुभप्रद समझे। और जो पशु ब्रह्म कष्णादि अनुमार काम करने में समय, मैकड़ों बार पञ्चमकार. और ताइकब्रह्मको सेवा करता है, भूनादि देवताको को मेवा करके भो जो विचलित नहीं होते, उनको पूर्णा- मेवा उस लिए नाराहा । है, संपन या य हो। भिषिक्त कहा जा सकता है। इस प्रकार पूर्णाभिषित वणवतो पशु गर्ग से भूतादिको मेवा छोड़ देनो आचार्य पद पर अभिषिक होनेको क्रियाका नाम पदाभि- चाहिये। रुद्रयामलके मतसे षक है। कुलाण वतंत्रमें लिखा है-- "पशुभावस्थितो मन्त्री सिद्धि कामवाप्नुयात् । __"गुरूपदिष्टमार्गेण बोध र्याद्विचक्षणः । यदि पूर्वावस्थां च महाकौलिकदेवताम ॥ पाशमुफक्षणाक्लिष्य पगनन्दमयो भवेत ॥ कुलमार्गस्थितो मन्त्री सिद्धिमाप्नोति निश्चित ।। वोधविदा शिवः साक्षात्र पुनर्जन्मतां व्रजेत। यदि विद्याः प्रसीदन्ति वीरभावं तदालभेत् । एषा तीव्रतरा दीसा भववन्धविमोचनी। वीरभावप्रस.देन दिव्यभावमवाप्नुयात्। सजीवमीनयुक्तेन सुरया पूरितेन च । दिव्यभावं वी भाव ये गृहन्ति नरोत्तमाः। अयं मिद्धाभिषेकस्य आचार्यस्यास्य पावति ॥ वांछाकल्पठ्ठालता पतयस्ते न संशयः ॥" पूर्णाभिषेकहीना ये मृताश्च कुलनायिके। यदि पूर्वापर पशभावसे रह कर महाकौलिक देव- सिद्धा पूर्णामिषे केन शिवसायुज्य माप्नुयात् ॥ ताका मन्त्रग्रहणकारी. केवल सिखि लाम करे, तो कुलमा तेन मुक्ति ब्रजन्तीति शाम्भवी वाक्यमब्रवीत्।" गख मनग्रहणकारी निचय मिति साम करेगा। मा. दोषित विचक्षण व्यक्षिके गुरुके उपदिष्ट मार्ग पर विषाके प्रसभेने पर वोरमात्र प्राल होता है। वोर- विचरण करके सम्म जान लाभ करने पर वर भव. भावके प्रसाद विमभावको प्रालि जोती। जो नरवर | बन्धन और केपसे सब होकर पानन्दमय हो जाता Vol. IX..57