इस प्रकार जप करने पर मिहि होतो , पन्यथा होने । "प्रयोगा म्भकाले व मुग दुग्धमयी भवेत्। पर मिहिनहीं होती। लोहित वा भवेद्देवि नाम पुष्षमयं भवेत्। इसमें पनाधिकारी कौन है? सुरापात्र मवेत शन्य मांसपात्रं विशेषतः । "एतस्य च प्रयोगेन ग्लानिर्यस्य प्रजायते। कलाकमान्तरक्षेत्र पुष्पं पुष्पान्तर भवेत् ॥ कालिकामन्त्रवर्गेषु नाधिकारी स उच्यते ॥" नवनीतं मांसतुल्यं मांस पुष्पं भवेत् प्रिये। जपर जो कहा गया है, उस पर जिसको ग्लानि उप- | एवं ज्ञात्वा साधकेन्द्रो जायते चक्रमेण तु " खित हो, वह वोराचारण जामें अनधिकारी है। इसके प्रयोगारम्भकालमै सुग हो दुग्धतुल्य पोर मांस पुष्प पुरसरण- स्वरूप है। सुरा और मांसपात्र बाद में शून्य हो जायेंगे। "लतमात्रजपेनैव पुरश्चरणमुच्यते । उममें बाको कुछ न बचेगा। इनमें नवनीत मामतुल्य क्षतियाणां द्विलक्षं स्यात् वैश्य.नां तिलक्षकम। है। माधकोष्ठको इस प्रकार जान कर कार्य करना शूदानान्तु चतुर्लक्षं पुरश्चरणमुच्यते । उचित है। लक्षमात्र जपेद्देवि हविष्याशी दिवाशुचिः॥ "सौवर्ण राजतश्चैव तथा मौक्तिकमेव च । रातो निशीथे तावच पीत्वा कुलरस प्रिये । लिट्ठ पद्मरागं च तथैव वरवर्णिनि ॥ कुलनारीगणोपेतो जपेन्मत्रमनन्प्रधीः॥ प्रोक्तं माला चतुष्क'च समभागेन मालिकां । एवमुक्तविधानेन दशांश होममाचरेत् । प्रथयेत् पट्टसूत्रेण पुटिपणी गृहवर्तिनी ॥ तरशाशं तर्पण' च तदशांशाभिषेचनम् ॥ लोहितेन वरारोहे सका। सुशोभनाम् । तदशांशं विप्रभोज्य कीर्तित परमेश्वरि । स्नापयेत् पंचगव्येन मकरन्देण पार्वति ॥ पुरिपणीमकरन्देन होमतर्पणमाचरेत् ॥ तार माया कृर्चयुग्म भाले माले पदं तथा । एवं प्रयोगमात्रण सिद्धो भवति नान्यथा। वहि का समुच्चार्यशत जप्ताभिमम्तयेत् ॥ वासिद्धि लभते देवि कवित्व निर्मल प्रिये ॥ स्नापयेत् पीठम्ध्येतु शन्यागारे वरानने । धनेनापि कुवेरस्यात् विद्यया स्यात् वृहस्पतिः। ततस्तां मालिकां देवि गृहीत्वा यत्नतः सुधीः॥ आकल्पोजीवनो भूत्वा अन्ते मुक्तिमवाप्नुयात्।" शाखा सिद्धिस्तु निकटे महोत्सवमथाचरेत् । लक्षमात्र जप ही इसका पुरखरण है, किन्तु क्षत्रियः | षोडशाब्दा सुयुवती समानीय प्रयत्नतः॥ के लिये दो लाख, वैश्यों के लिए तीन लाख और तामुर्त्य स्वयं बन्धै. स्नापयेत् उद्धवारिणा । शूद्रोंके लिए चार साख जपका पुरचरण होता है । शुचि दिव्याल'कारशोभाभिर्दिव्यपुष्पैः सुगन्धिभिः । पर्वक हवियाशी हो निशीथरात्रमें कुलरस पी कर पूजयित्वा च मिष्टान्न भॊजयेतां वराननाम । तथा कुलनारीयुक्त हो अनन्यचित्तसे इस मन्त्रका अप भासव पाययेत् यत्नात् निश्चयं तन्मय' पिवेत् । करें। इस तरहसे जपकार्य को पूरा करके विधानानमार ततो मन्त्री रमयेत्ता रतिमिच्छति सा यदा। दशांश ओम, दशांश तर्पण और दशांश अभिषेक कर, तस्या हस्ते ततो मालां दत्वा तां याचयेद्बुधः। बादमें दांश बामण भोजन करावें। पुष्पिणी-मकरन्द नीत्वा मालां तया दत्ता ब्राह्मणान् भोजयेत्तसः । बारा होम तथा तर्पण करें । इस प्रकारसे प्रयोग किया तदा जपेदद्धरात्रौ साक्षात् भवति नान्यथा ॥" जाब तो सिधि होती है, अन्यथा होने पर नहीं । वाक् सुवर्ण, रौप्य, मौक्तिक, विट्ठम और पद्मराग, इनकी सिधि तथा निमल कवित्वशक्ति लाभ होती है, अर्थ में माला पसूत्रसे गूंथ कर उससे रहवर्तिनो पुषिणो स्त्री- बुधिरके समान, विद्या, वृहस्पति तुल्य पौर जीवन | को अथित करें। बाद में पञ्चगव्य और मकरन्द हारा कालान्त पर्यन्त खायो होता है। पन्त में वह मुक्तिलाम | बान करावं । इसके बाद बक्रिकान्ता (खाहा ) चारण करपभिमाण करना और पीठके मधमासिकाबोवान Vol ix. 60
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