प्रेतास्थि-प्रत्यभाव है। दोनों प्रकार के अशौच मिलनेसे गुरु अशौच द्वारा प्रेत्यजाति ( सं० स्त्री० ) प्रेत्य मृत्वा जाति जन्म । पुन- हो शुद्धि होती है । विदेशमृन ज्ञातिके त्रिरात्राशौच- जन्म। को अपेक्षा विदेशमृत मातापिता और भर्त्ताके त्रिरात्रा- प्रेतभाज् (सं० त्रि० ) मृत्युके बाद परलोकमें फलभागी। शौच होता है । अतएव यहां पर गुरु अशीच ही बल- प्रत्यभाव ( स० पु०) प्रत्य. मृत्वा भावः। मरणोत्तर वान है। तुल्य विरावाशौच एक साथ होनेसे पूर्वाशीच पुनर्जन्म । एक बार मृत्यु, फिर जन्म, इसीका नाम द्वारा और जनन वा मरण विगत्राशौच एक साथ होनेसे प्रेत्यभाव है। दर्शनशास्त्र में इसका विषय बहुत बढ़ा मरणाशीच द्वारा शुद्धि होती है। (शुद्धितत्त्व ) चढ़ा कर लिखा है, पर विस्तार हो जानेके भयसे यहां यही सब अशौच प्रेताशौच है । जव तक यह अशौच : पर उसका संक्षिप्त विवरण दिया जाता है। हम लोग दूर नहीं होता, तब तक शरीरकी शुद्धि नहीं होती। शरीर जितने प्रकारके दुःखभोग करते हैं उनमेंसे जन्म मृत्यु को शुद्धि होनेसे ही दैव वा पैत्र कर्मों में अधिकार होता ही प्रधान है । इस जन्ममृत्युके हाथसे पिण्ड छुटे, है। अशौचके रहनेसे शरीर अपवित्र रहता है, इसीसे उसीके लिये मोक्षशास्त्रका उपदेश है। महर्षि गौतमने अशौचयुक्त व्यक्तिके साथ एकत्र उपवेशन वा भोजन प्रेत्यभावका लक्षण इस प्रकार निर्दिष्ट किया है । आदि निन्दनीय बतलाया गया है। प्रेत्यभाव शब्दसे जन्म हो कर मरण और मरण हो कर प्रेतास्थि (स० क्ली०) मृतथ्यक्तिको अस्थि, मुर्देकी हड्डी। जन्म, इस प्रकार जीवका धारावाहिक जन्म-मरण समझा प्रेतास्थिधारी (सं० पु० ) १ मुदों की हड्डियोंकी माला जाता है। जब तक जीवात्माकी मुक्ति नहीं होती, तब पहननेवाला । २ रुद्रका एक नाम। तक जीवात्माका धारावाहिक जन्म और मरण हुआ करता प्रेति ( सं० पु० ) प्रकर्षेण इतिर्गमनं देहोऽस्य । १ अन्न, . है। मुक्ति होनेसे जन्म और मरण कुछ भी नहीं होता। अनाज । २ मरण, मरना। ३प्रगमन, आगे बढ़ना: जन्म शब्दसे शरीरका आत्माके साथ प्रथम सम्बन्ध प्रेतिक । संपु०) मृतष्यक्ति, प्रेत । समझा जाता है। आत्माके साथ जब शरीरका प्रथम प्रेतिनी ( हिं० स्त्री० ) ग्रेनको स्त्री, पिशाचिनी। सम्बन्ध होता है, उस समय देवदत्त पैदा करता है, ऐसा प्रतिवत् ( स० स्त्री० ) प्रति देखो। व्यवहार हुआ करता है । मरण शब्दसे भी जिस सम्बन्ध- प्रेती ( हि० पु० ) प्रेतपूजक, प्रेतकी उपासना करने के होनेसे आत्मा शरीरो है, ऐसा व्यवहार हुआ है उस वाला। सम्बन्धका नाशक समझा जाता है। यही जन्म और प्रेतीवाल ( हि० पु० ) वह मनुष्य जो कभी खास अपने । मृत्यु जीवके अशेष दुःखभोगका मूलकारण है, इस मूल लिये और कभी अपने मालिकके लिये काम करे। कारणका जब तक नाश नहीं होता, तब तक अशेष दुःख- प्रेतीषणि (स० स्त्री०) १ प्राप्तगमन । २ अग्निका एक से बचना बिलकुल असम्भव है। जब तक इसका मूल नाम। नहीं काटा जायगा, तब तक जन्म और मरण धारा- प्रेतेश ( सं० पु० ) प्रेतानामीशः ६-तत्। यमराज । वाहिकरूपमें होता ही रहेगा, एक बार जन्म और फिर प्रेतोन्माद ( सं० पु.) एक प्रकारका उन्माद या पागल- जन्मके बाद मृत्यु अवश्य होगी । जब जीवके आत्मतत्त्व- पन। इसके विषयमें ऐसा लोगोंका ख्याल है, कि यह ज्ञानका सञ्चार होगा, तब यह जन्ममरण-धारा समूल प्रेतोंके कोपसे होता है। इसमें रोगीका शरीर कांपता नष्ट हो जायेगी। परन्तु बिना आत्मतत्त्वज्ञानके जन्म- है और वह कुछ भी खाता पीता नहीं है। लम्बी लम्बी मृत्यु अवश्यम्भावी है। सांसें आती हैं। वह धरसे निकल कर भागनेकी चेष्टा मरणके बाद जन्म, जन्मके वाद मरण, ऐसे जन्ममरण- करता है। लोगोंको गालियां देता है और बहुत प्रवाहका नाम प्रेत्यभाव है। प्रेत्यभाव और जन्मान्तर चिल्लाता है। दोनोंका एक ही अर्थ है । परन्तु शास्त्रमें कहा गया है, प्रत्य ( सं० पु० ) प्र-इल्यप। लोकान्तर, परलोक। कि आत्मा अजर और अमर है, आत्माके जरा मृत्यु मा
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