प्रत्यभाव मारने पर भी वह उमसे निवृत्त नहीं होता। ऐसा उसका वियोगभाव मरण है । 'मृत्युरत्यतविस्मृतिः' मरण आग्रह वा हठ पूर्वजन्मका संस्कार वा अभ्यास छोड़ कर और आत्यन्तिक विस्मरण दोनों एक ही बात है । जिस और कुछ भी नहीं है। कारण कूटने जीवको देहपिञ्जरमें आवद्ध रखा था, उसी ६। जीवविशेषका स्वभाव और कर्मविशेष पूर्व कारण कूट वा संगोगविशेषके विनष्ट होनेसे अत्यन्त जन्मको अवस्थिति साबित करता है । सद्यःप्रसूत शाखा विस्मरण वा महाविस्मरण नामक मरण होता है । मरण मृगकी शाखाका आक्रमण और सद्यःप्रसूत गण्डार-शिशु. होनेसे देहादिमें अन्य प्रकारका विकार उपस्थित होता का पलायन-वृत्तान्त अच्छी तरह जाननेसे मालूम पड़ेगा है। अतएव सभी अवयवोंके अपूर्व संयोगका नाम पूर्वजन्म है, इसमें कुछ सन्द है नहीं। इत्यादि। जन्म और वियोग विशेषका नाम मरण है। इसीसे जो कहते हैं, कि पूर्वजन्म नहीं है, उनका मत नितान्त | सांख्याचार्यने कहा है -- अश्रद्धेय और युक्तिविगर्हित है। "अपूर्वदेहेन्द्रियादिसंघातविशेषेण संयोगश्च वियोगश्च।" जम्म, मरण और जीवन-आरमा जब अजर अमर है, तब (सांख्य) मरता कौन है ? इस प्रश्नको मीमांसा करनेमें एक साथ इससे मालूम होता है, कि सावयव घस्तुका हो जन्म, मरण और जीवन तीनोंका ही वर्णन और मीमांसा मरण होता है, निरवयव वस्तुका नहीं। आत्मा आ जाती है । ऋपिमात्रका कहना है, कि 'नाय'इन्ति न | निरवयव है, इसीसे आत्माका मरण नहीं है। हन्यते' आत्मा न किमीको मारती है और न स्वयं मरती नितान्त सूक्ष्म और निरवयव इन्द्रियोंकी भी मृत्यु ही है। कारण, मरण नामक कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । नहीं है। आत्मा नहीं मरती और न इन्द्रिय ही जो घटना मरण कहलाती है उसके प्रति लक्ष्य करनेसे, ! मरती है, यह सिद्धान्त यदि सत्य हो, तो अमुक मरा है, सूक्ष्मानुसूक्ष्मरूप विवेकबुद्धिको परिचालना करनेसे मैं मरूगा, मैं मरा, ऐसा न कह कर देह मरी है, देह समझमें आ जायगा, कि कौन मरता है। मरण क्या है, मरेगी ऐसा ही कहना उचित है, पर ऐमा जो कोई भी पहले यही जानना आवश्यक है। कुछ घास, लकड़ी नहीं कहना है, उसका कारण क्या ! कारण है। मनुष्य और रस्सी ले कर एक अपयवी (गृहादि) बनाया। जल, इस दृश्यमान संघातका अर्थात् देह, इन्द्रिय, प्राण, मन वायु और मृत्तिका आहारण करके एक दूसरा अवयवी इनके सम्मिलन भावका विनाश देख कर ही 'मरण' ( घटादि ) प्रस्तुत किया । क्षिति, जल और वीज एक शब्दका प्रयोग करते हैं । यथार्थमें प्राण संयोग- साथ मिल गया, उससे अंकुर निकला, उससे शाखा- का ध्वंस ही उक्त शब्दका प्रधान लक्षा है । पल्लवादि उत्पन्न हुए। अब वह कहने लगा, कि वृक्ष प्राणव्यापारके निवृत्त नहीं होनेसे दुसरेके सम्बन्ध- उत्पन्न हुआ है। कुछ दिन बाद उन सबोंका वह पूर्व की निवृत्ति नहीं होती । 'जीवन' 'मरण' इन दो शब्द- अवयव विश्लिष्ट हुआ अथवा यों कहिये, कि उन सब के धातव अर्शका अन्वेषण करने पर भी कथित अर्थ अवयवोंका संयोग विध्वस्त हुआ । अब उसने कहा, कि प्रतीत होता है । जीव धातुसे जीवन और मृ-धातुसे गृह भग्न हो गया, घट विध्वस्त हुआ और घृक्ष मरं गया मरण, जीव धातुका अर्थ प्राणधारण और मृ-धातुका अर्थ है। सोच कर देखो, किस प्रकार घटनाके ऊपर भग्न, प्राणपरित्याग है। सुतरां यह मालूम होता है, कि प्राण ध्वस्त और मरण शब्दका व्यवहार हुआ है। अवयवका जब तक देहेन्द्रिय संघातमें मिलित रहते हैं, तभी तक शैथिल्य, विकार अथवा संयोग ध्वंस इस अन्यतमके उसका जीवन है, विच्छेद होनेसे ही मरण होता है । अतः ऊपर ही मरणादि शब्द प्रयुक्त हुए थे। उसे निजी व यह कहना होगा, कि मरणसे आत्माका विनाश नहीं पदार्थसे सजीव पदार्थ में उठा कर लानेसे समझमें आयेगा, होता, देहके साथ उसका केवल विच्छेद होता है। मैं कि जीवन्त पदार्थका मरण कौन है ? जन्म मरण और मरा और अमुक मरा, इन सब शब्दोंका अर्थ औपचारिक कुछ भी नहीं है, अवयवका अपूर्व संयोगभाव जन्म और है। आत्माका अध्यास रहनेसे ही देहादि-संघात अह- Vol. xv. 3
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