१० प्रत्यभाव प्रत्ययगम्य होता है और इसी कारण उस प्रकारके औप- । युक्त है, उसका गमनागमन असम्भव है। परिच्छिन्न चारिकका प्रयोग हुआ करता है । किन्तु प्राणसंयोग वा खण्ड पदार्थका हो यातायात है, परिपूर्णपदार्थका का ध्वंस ही यथार्थ मरण है। नहीं। आत्मा पूर्णस्वभावयुक्त है, इस कारण गत्या- ___ तृणकाप्टादिको संहत करके उसकी जो दृढ़ता और गति नहीं है। प्यवहारोपयोगिता सम्पादन को जाती है, उसका नाम परन्तु यातायात जो करता है सो कौन ? अथवा गृहका जीवन है । उस दृढ़ता और व्यवहारोपयोगिताका जन्ममरण-प्रवाहका ही कौन भोग करता है ? स्थूल- जो अवस्थानकाल है, वह उसकी आयु है , जीवदेहका शरीर तो पड़ा रहता है, आत्मा न जाती है और न आती जीवन वा आयु उमीके अनुरूप है। श्वास प्रश्वास है, नब जाता है कोन ? अथवा आता ही है कौन ? इस जिसका कार्य है, वह प्राण कहलाता है। यथार्थमें प्रश्न के उत्तरमें सभी मांख्यवेदान्तादिने एक स्वरसे कहा प्राण कौन-सा पदार्थ है, उसका निर्णय करनेमें दाश है, दृश्यमान स्थूलके अभ्यन्तर सूक्ष्मशरीर है, वही सूक्ष्म- निकोंमें मतभेद पैदा हो गया है। कोई कहते हैं, कि शरीर बार बार जाता आता है। जब तक मुक्ति नहीं वह वा होती वा प्राकृतिक प्रलय उपस्थित होता, तब तक वह व्यापारविशेष है और कोई इसे एक प्रकारका स्वतन्त्र रहता है और इहलोकमें गमनागमन करता है। पदार्थ बतलाते हैं। पहले मतका मिद्धान्त इस प्रकार "उपात्तमुपात्तं पाटकौपिकं शरीरं हायहायञ्चोपादत्ते।" है शरीग्में जो तेज, उष्मा, जल वा आकाश है, निश्वास (नत्त्वकौमुदी ) प्रश्वास उन तीनोंका मांयोगिक कार्य है। दैहिक उ'मा जीव जो बार बार पाटकौपिक शरीरको ग्रहण और वा ताप ग्मरक्तादिरूप जन्टको उत्तेजित करता है। दोनों वार बार त्याग करता है, वही जीवका यातायात और की संघर्ष जनित क्रियाविशेष उदरकन्दरस्थ आकाशमें इह-परलोक-सञ्चरण है। दृश्यमान् स्थूलशरीरका शास्त्र- जा कर परिपुष्ट होती है। वह परिपुष्ट संयोगिक क्रिया में पाट्कोपिकशरीर नाम रखा है। त्वक, रक्त, मांस, फुमफम नामक संकोचविकाशशील, यन्त्रको मंकुचित स्नायु, अस्थि और मजा ये छः कोप है अर्थात् आत्माके और विकशित करनी है। विकाश-क्रियामै वाह्यवायुका आवरण हैं, इसीसे पट्कोषात्मक स्थूल देहको षाटकौषिक परिग्रह वा पूरण होता है, पोछे मोचक्रियासे उमका : कहा गया है। यह पाट कौपिक शरीर शुक्रशोणितके स्याग वा घहिर्गति उत्पन्न होती है। प्राणयन्त्रकी ऐसी परिणामसे उत्पन्न होता है, परन्तु सूक्ष्मशरीर उस प्रकार क्रियासे भक्षाव्य परिपक होता और रसरक्तादि मारे नहीं हाता। सूक्ष्म शरीर अन्तःकरण अर्थात् बुद्धीन्द्रिय- शरीग्में प्रेरित होता है। देहकी अवनति, बुद्धि, जन्म : निचयको समष्टि या तद्वारा चित है। यह बहुत सूक्ष्म और मग्णादि जो कुछ घटना हैं वे सभी उसी प्राणयन्त्र है, इसीसे अच्छे द्य, अभेद्य, अदाह्य, अफ्लेद्य और अदृश्य के अधीन हैं। इन्द्रियकी कायशक्ति प्राण द्वाग उत्पन्न है। जिसके मूर्ति नहीं है, अवयव नहीं है, केवल ज्ञानमय और संरक्षित होती है। प्राण जब तक सतेज रहेंगे, पदाथ है, उसे कौन देख सकता है, कौन उसे छेद, भेद, तभी नक इन्द्रियां कार्य कर सकेंगी। प्राण ही उत्क्रान्ति वा दाह हो कर सकता है ? सांख्यके मतसे आदि सृष्टि- का कारण है अर्थात् मनुष्य जब मरना है तव प्राण कालमें प्रकृतिसे प्रत्येक आत्माके निमित्त एक एक सूक्ष्म इन्द्रियको ले कर उमान्त अर्थात् शरीग्मे निकल जाते शरीर उत्पन्न हुआ था। प्रकृतिको पुनः साम्यावस्था हैं। विशेष विवरण प्राण शब्दमें देखो। . वा जीवकी मुक्ति नहीं होने तक वह सूक्ष्म शरीर रहेगा सूक्ष्म शरीर और एलोकगति --- जो सर्वव्यापी वा पूर्ण है और बार बार पाट कौषिक शरीर उत्पन्न होगा। उसकी फिर गति ही क्या ? पूर्णकी गति अर्थात् याता. सूक्ष्मशरीरक दूसरा नाम लिङ्गशरीर है। किसीके यात करनेका स्थान ही कहा है ? जिसे यातायात करनेका मनसे इसके सत्तरह अवयव, किसीके मनसे सोलह और स्थान रहता है, वह पूर्ण नहीं है। जो वस्तु पूर्णस्वभाव.. किसीके मतसे पन्द्रह है। सभीके मतसे यह सूत्मशरीर
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