१४ रहने पर भी इसका स्वरूप निर्णय करना असाध्य है। वैष्णवाचार्यों का कहना है-' इसी कारण नारदीय-भक्तिसूत्र में लिखा है.-"अनिर्वचनीयं धन्यस्याय नवःप्रेमा यस्योन्मीलति चेतसि । प्रस्वरूपम ।" अन्तर्वाणिभिरण्यस्य मुद्रासुष्ठ सुदुर्गमा ॥" भतएव प्रेम क्या पदार्थ है उसे वाक्य द्वारा व्यक्ति- जिस धनी व्यक्तिक चिनमें इस नवीन प्रेमका उदय विशेषको समझाया नहीं जा सकता है। इसका दृष्टान्त होता है, शास्त्रज्ञ होने पर भी वे सहसा प्रेमको परिपाटी भी उसी नारदसूत्र में लिखा है, "मूकाम्यादनवत्” अर्थात् समझ नहीं सकते । यह प्रेम शान्त, दास्य, सख्य, वात- जिस प्रकार कोई मूक व्यक्ति किसी द्रव्यका आस्वादन करने सल्य और मधुरके भेदसे पांच प्रकारका है। से उसका कटु, तिक्त और कपाय गुण किसीके भी सामने घान्त प्रेम। ध्यक्त नहीं कर सकता, केवल वही उसका आस्वादन अनु शान्तरसका विषय आलम्बन चतुर्भुज विष्णुमूर्ति भय करता है, प्रेम भी उमी प्रकार है, प्रेमी व्यक्ति भिन्न और आश्रयालम्बन सनकादि शान्तगण हैं। अन्य कोई भी उसका स्वरूप नहीं जान सकता। इसी महोपनिषद्का श्रवण, निर्जनस्थान-सेवन, शुद्धसत्त्व- कारण उस सूत्रमें कहा गया है “यथा गोपगमाणम्" मय भगवानकी स्फूर्ति, तत्त्वविचार, ज्ञानशक्तिका प्राधान्य, गोपियोंका श्रीकृष्णके प्रति जो प्यार है, उसीको प्रेम विश्वरूपदर्शन, शानिभक्तका संसर्ग और समग्विद्यगणके कहते हैं। श्रीमद्भागवतके तृतीय स्कन्धमें लिखा है, कि पहले साथ उपनिषदुविचार शान्तरसके उद्दीपन हैं। नासाप्रमें सत्पक्ष, पीछे तत्त्वज्ञान, उसके बाद भागवतकथामें प्रवृत्ति, दृष्टि, अवधूतकी तरह चेटा, चार हाथ स्थान देख कर बादमें श्रद्धा, पीछे रति अर्थात् भावभक्ति और सबके पी पोछे पानिक्षेप, ज्ञानमुदाधारण, हरिद्वषोके प्रति द्वेष- अन्तमें भक्ति अर्थात् प्रेम होता है। राहित्य, भगवान्के प्रियभक्तमें भक्तिकी अल्पता, संसार- भीष्म, प्रह्लाद, उद्धव, नारद आदिने अन्यमनस्क- क्षय और जीवन्मुक्तिके प्रति बहु आदर, निरपेक्ष, निर्ममता, रहित भगवान्में जो ममता है, उसीको प्रेम बतलाया निरहङ्कारिता और मौन इत्यादि अनुभाव है। स्तम्भ, है। यह प्रेम भावोत्थ और अतिप्रसादोत्थके भेदसे स्वेद, रोमाञ्च, स्वरभेद, वेपथु, धैवल्य और अश्रु ये सात दो प्रकारका है। निरन्तर अन्तरङ्ग भक्त्यंगके सेवन द्वारा सात्विक भाव हैं। निर्वेद, धैर्य, हर्ष, मति, स्मृति, भाव जब परमोत्कर्षको प्राप्त होता है, तब उसे भावोत्थ उत्सुक, आवेग और वितकं आदि इस शान्तरममें सञ्चा- प्रेम और हरिके स्वीय सङ्गन्दानादिको ही अतिप्रसादोत्थ रोभाव है। शान्तिरति स्थायीभाव है। प्रेम कहते हैं। दास्यप्रेम। एक दिन श्रीकृष्णने उद्धवसे कहा था - "तेनाधीतश्रुतिगणा नापासितमहत्तमाः।। इसे शास्त्रकारोंने प्रीतभक्तिरस बतलाया है । इस अवतातप्ततपसो मत्सङ्गान्मामुपागताः॥" रसमें द्विभुज और चतुर्भुज दोनों रूप ही विषयालम्बन ( भाग० ११ स्कन्ध ) , और हरिदासगण आश्रयालम्यन हैं। उन गोपियोंने मुझे पाने के लिये वेदाध्यन नहीं किया, विषयालम्बन श्रीकृष्ण वृन्दावनका द्विभुज, अन्यत सत्सङ्ग भी नहीं किया और न कोई प्रत या तपस्या हो । द्विभुज और चतुभुजभेदसे तीन प्रकारका है । पाश्रया- की ; केवल मेरे सङ्गभावसे ही उन्होंने मरा . प्रमलाभ लम्बन हरिदास भी प्रश्रित, आमावत्ती, विश्वस्त और करके मुझे पा लिया है। ____ नबुद्धिके भेदसे चार प्रकारका है । इन चार प्रकारके यह अतिप्रसादोत्थ प्रेमके भी फिर दो भेद हैं, माहात्म्य दासोंका नाम अधिकृत, आश्रित, पारिषद और अनुग है। ज्ञानयुक्त और केवल (माधुर्य ) ज्ञानयुक्तः। विधि-- ब्रह्मा, शिव, इन्दादि देवगण अधिकृत दास हैं । माश्रितदास मार्गसे भजनकारियोंके प्रेमको महात्म्यज्ञानयुक्त और शरणागत, शानी और सेवानिष्ठ भेदसे तीन प्रकारका है। रागानुगाश्रित भक्तमार्गके प्रेमको केवल ( माधुर्य ) ज्ञान- कालीयनाग और जरासन्ध काराबद्ध राजगण शर- णागत हैं। जो मुक्तिको इच्छाका (रित्याग करके युक्त कहते हैं।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/२०
दिखावट