प्लीहन (प्लीहा विषम ज्वगन्तकलौह आदि प्राहक औषध विशेष उप. . ठीक ठीक पता नहीं लगा है। परन्तु इतना तो अवश्य कारक है। रक्तमाशय, शोथ, पाण्डु और कामलां आदि कहा जा सकता है, कि भुक्कदव्यका अण्डलाल परिपाक पीड़ा इसके साथ रहनेसे उस रोगनाशक औषधकी कालमें प्लीहाके मध्य सश्चित होता है। उस समय मिश्रितभावमें व्यवस्था करे। प्लीहरोगोके ग्रहणी होनेसे प्लीहाका कलेवर वर्जित होते देखा जाता है। फिर कुछ उसका आरोग्य होना मुश्किल हो जाता है। हरोगीके समय वाद ही जब वह रस शोणितमें चूस लिया जाता मुहमें यदि क्षत हो जाय, तो खदिगदिबटिकाको जलमें है, तब पलीहा पुनः पूर्वावस्थाको प्राप्त होती है अर्थात् घोल कर क्षतस्थान पर लगावे और बकुलकी छाल, छोटी हो जाती है । अलावा इसके पलीहासे ही रक्तका जामुनकी छाल, गालवकी छाल तथा अमरूदके पत्तेको श्वेत और लालकणिकाओंकी उत्पत्ति हुआ करती है। सिद्ध कर उसमें थोड़ा फिटकरीका चूर्ण डाल दे। पीछे पहले कहा जा चुका है, कि ज्वररोगमें साधारणतः कुछ गरम रहते उससे कुल्लो करनेसे मुखक्षतका विशेष इसकी वृद्धि होती है। इस समय रसमें रक्ताधिक्य, उपकार होता है । प्रदाह, स्फोटक और विवर्द्धनादि लक्षण देखे जाते हैं। प्लोहामें वेदना रहनेसे वन-अदरकको पीस कर उस प्लीहाका रक्ताधिक्य (civil:estion) प्रबल और अप्र का प्रलेप तथा गोमूत्रको गरम कर अथवा गरम जलका बलभेदसे दो प्रकारका है। मलेरिया और टाइफेष्ठ ज्वरमें स्वेद दे। बहुत हल्केसे फ़ानलको उदर में बांधनेसे भी उप प्लोहाका प्रबल रक्ताधिक्य होता है। कभी कभी टाइफस, कार होता है। सूतिकावस्था, बसन्त, विसर्प और पाइमिया आदि प्लीहरोगीका पथ्यापथ्य। ज्वररोगमें जो सब द्रव्य रोगोमें भी रक्ताधिक्य होते देखा जाता है । आधात आदि निषिद्ध बतलाये गये हैं, प्लीहामें भो वे सब गव्य विशेष , भी इसका दूसरा कारण है । यकृद्धमनोमें रक्त सञ्चालन अनिष्टप्रद हैं। इसमें केवल दूध न पी कर उसके साथ की अवरुद्धता और हृत्पिण्ड तथा फुसफुसीय पुगतन- २४ पीपल सिद्ध करके सेवन करनेसे प्लीहाका विशेष रोग ही अप्रवल रक्ताधिक्यका कारण समझा जाता है। उपकार होता है । इस रोगमें सब प्रकारका वघारा हुआ. इस समय प्लीहा आयतनमें बड़ी, कृष्णाभ, आरक्त, पदार्थ, गुरुपाक द्रष्य और तीक्ष्णवीर्य द्रव्यभोजन तथा स्वाभाविककी अपेक्षा भारी और उसका कैपस्यूल (Ca अधिक परिश्रम, रातिजागरण, दिवानिद्रा और मैथुनादि sule ) मसृण तथा विस्तृत होता है। पेशीके सभी बिलकुल निषिद्ध है। विधान कोमल और कहीं कहीं तरल वा फलके गूदेके डाकृरी-मतसे प्लीहा शरीराभ्यन्तरस्थ यन्त्रविशेष सदश नरम मालूम होता है। काटनेसे उसमेंसे काफी (Sipleen) है, उदरगह्वरकी बामकुठिमें पाकाशयके लाल रक्त निकलता है। प्रदाह अधिक दिन रहनेसे प्लीहा प्रशस्त अंशके उत्तर अवस्थित है। इसकी आकृति पिष्टक- बड़ी और कड़ी हो जाती है । प्लीहा-स्थानमें सामान्य को-सी और वर्ण घोर बैंगनी है। रक्तके न्यूनाधिक्यानु- वेदना, छूनेसे अधिक यन्त्रणा और रक्ताल्पताके लक्षणादि सार इसके भी आयतनकी हासवृद्धि होती है। वृद्धा-: देखे जाते हैं ।। प्लीहा-स्थानमें गरमजलका सेक, ब्लिष्टर वस्थामें इसका आयतन और भार घटता और सविराम : वा माष्टर्ड -प्लष्टरका आवश्यकानुसार प्रयोग विधेय है। तथा कम्पज्वरमें बढ़ जाता है। आभ्यन्तरिक लवणयुक्त मृदु विरेचक भी उपकारी है। साधारणतः मानवमात्रके प्लीहा होती है। कभी ! यकृच्छिराकी अवरुद्धता रहनेसे उसीके अनुसार कभी छोटी अतिरिक्त प्लोहा भी देखी जाती है। इस चिकित्सा करनी चाहिये। पलीहाका मूलभाग प्लीहाके नीचे संयुक्त रहता है। पाइमिया, सेप्टसिमिया, आघात, मलेरियाके स्थान. उसका आयतन मटरसे ले कर अखरोटके जैसा भी हो में वास और शैत्य संलग्न हेतु इससे प्लीहा (Splenitis सकता है। or Haemorrhagi, Infarction) उत्पन्न होती है। रोग प्लीहाका प्रकृत कार्य क्या है, उसका आज तक भी दिखाई देनेसे बहुत कुछ शारीरिक परिवर्तन होता है। Vol. xv. 9
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