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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/४७३

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तब राव हमीरजीने दोनों राज्यों के बीचमें पड़ कर और राव सूर्यमलके पोछे इनके पुत्र राव सुरताणजी वू'दीकी मांडलगढ़ राणाजीको दिला कर संधि करा दी। राणा गद्दो पर आरूढ़ हुप । वे भैरवके उपासक थे। इनकी हर- हमीरजीके पत्र राणा खेतसोजीके साथ राव हमीरजीके कतोसे सब सरदार और प्रजा इनसे नाराज हो गई थी छोटे पुत्र खटकड़के जागीरदार लालासिंहजीकी पुत्रीका | इसलिये सब सरदारोंने मेवाड़से राव सुरजनजीको (जो संबन्ध हुआ था। एक चारणके उसकानेसे राणा राव नारायणदासजोके छाटे भाई राव नरबदजीके पोते खेतसीजीने लालसिंहजी पर चढ़ाई कर दो। लालसिंह. थे ) बुला कर संवत् १६११ वि०में वृदोकी गद्दी पर जीके बड़े भाई वू'दीके राव बरसिंहजीने वीचमें पड़ कर बिठाया। राव सुरताणसिंहजी अपने बसाये हुए गांव राणाजीको समझा कर आपसमें मेल कराना चाहा, परंतु सुलतानपुरमें जा बसे। उनके न मानने पर लड़ाई हुई और अन्तमें राणा राव नारायणदासजीके भाई राव नरबदजीको मोटूदा- खेतसीजी संवत् १४३६ वि०में अपने श्वसुर लाल को जागीर मिली थी। इनको पुत्री बाई कर्मवती (कर्मती) सिंहजीके हाथ मारे गये। राव बरसिंहजीके | मेवाड़के राणा सांगाको घ्याही थी। इस सम्बन्धसे पुत्र राव बैरीशल्यजी पर मांडूके पठानोंने चढ़ाई राणाजीने राव नरबदजीके पुत्र कुवर अर्जुनजीको ६५ की। उस समय घोर संग्राम हुआ। राव बैरीशल्यजीने हजार रुपये वार्षिकली जागीरके १२ गाँव दे कर अपने बीरगति पाई। उनका एक छोटा पुत्र श्यामसिंह पास रख लिया था। संवत् १५८६ वि०में राव अर्जुन- मुसलमानोंके हाथ लग गया, जिसको उन्होंने मुसलमान के चित्तोड़के किलेके एक बुर्ज पर मालधेके पठानोंसे बना लिया और उसका नाम समरकंदी रखा। बैरी लड़ कर मारे जाने पर वह जागीर उनके पुत्र राव सुर. शल्यजीके पुत्र राव सुभाण्डदेव ( भांडाजी ) वू'दोकी जनजीको मिल गई। लगभग २० वर्ष तक रावसुरजनने गद्दी पर बैठे। इनके समयमें (संवत् १५४२में) ब्यालीसा मेवाड़में रह कर प्राण प्रणसे स्वामी सक्तिके साथ राणा अकाल पड़ा, जिसका इनको स्वप्नमें भान हो गया था। जीकी सेवा की। शायद इसी कारण कुछ लेखकोंने राव इन्होंने दूर दूर देशों से भी धान संग्रह कर लिया और सुरजनके साथ साथ वूदी राज्यको भी मेवाड़के आश्रित अकाल पड़ जाने पर उदारतासे प्रजामें बांटा और | जागीरदार लिख दिया है जो विश्वास योग्य नहीं है । इस पड़ोसी राजाओं को भी उनकी याचना पर नाजकी| भौतिके न्यायसे जयपुरके सवाई महाराज माधोसिंहजाके सहायता दे कर यश प्राप्त किया। मांडके मुसलमानों ने जयपुर राज्य प्राप्त होनेसे पहिले टोक गज्यमें रहनेके समरकंदीको सरदारीमें वूदी पर चढ़ाई की और इसे कारण जयपुर राज्यको भी टोंकका आधित राज्य मानना अपने अधिकार कर लिया। फिर थोडे. दिन पीछे धोखा पड़ेगा। राव सुरजनजीने राणाजीके साथ द्वारिका जा दे कर राव सुभाण्डदेवको उसने निमन्त्रण दे कर कर रणछोड़जीका नया मंदिर बनवाया था । वू'दीराज्य बुलाया और उन्हें मार कर आप निष्कंटक राज्य करने सिंहासन पर बैठनेसे पहिले वे मेवाड़के जागीरदार लगा। परन्तु थोड़े ही वर्षों पीछे राव सुभाण्डदेवके थे। जिस समय उनके पिता और वे मेवाइके जागीर- बड़े पुत्र राव नारायण दासजीने उनसे मिलनेके बहाने दार थे उस समय वूदी राज्य स्वतन्त्र था, मेवाड़वालोंके जा कर समरकंदीको मार राज्य पर अपना अधिकार | अधीन न था। राव सुरजनजीके दादा राव नरबदजीके जमाया । समरकंदीका पुत्र दाऊद (शायद इसी- बड़े भाई राव नारायणदास और उनके पुत्र राव सूर्य- को टाड साहबने अमरकंदी लिख दिया हो) मृगया. मलजी वूदी राज्यके स्वतन्त्र नरेश थे। संवत् १५८८ से लौटते हुए बूदीके बाजारमें मारा गया। राव नारायण वि०में रतनसिंहने राव सूर्यमलजीको आखेट में धोखा दे दासके पीछे उनके पुत्र राव सूर्यमलजी 'दोकी गद्दी पर कर मारा, जिन्होंने मरते मरते भी राणाजीको उनके ५ बैठे जो 'अजान बाहु' थे। मेवाड़के राणा रतनसिंह मनुष्यों सहित मार डाला था। यह इतिहास प्रसिद्ध और राव सूयमल परस्पर एक दूसरेके हाथसे मारे गये। घटना दोराज्यको स्वतंत्रताका ज्वलंत प्रमाण है।