७६३ और विभीषिकामय हो । भूसङ्ग-प्रसाय, कृत गोड़वनामा प्रथम भवभूदि समुद्रसे काव्यामृत क्षीपमुलोक प्रकटित पिशाचोंको अमानुषिक प्राकृति, मध्यनकी कथा का उल्लेख है।। लनेवाली वायुका सांय-सांग शब्द, शवोंके शाङ्गधरद्धति, प्रचण्डपाडालरामायण, भोज ल, प्रतिहतप्रवाहा शैवलिनीका घोर घर्घर नाद, उल्लु ओंका उदासकारी रव और शृगालोंके दीर्घ शब्द राजा यशवर्मा संवत्की ६टी शताब्दीके शेषभागमें कान्य- इन सेबोंने उस भीषम श्मशान प्रदेशको और भी भया कुज सिंहासन पर अधिष्ठित हुए थे। भवभूति इनके राजत्व- वह कर दिया है ।* उक्त श्लोकके दीर्घ समास तथा संव कालमें विद्यमान थे, इस बातका प्रमाण हमें काशिकावृत्तिके लित, घुत्कार, चण्ड, तात्कृत. भृन, प्राग्भार, भोम, घोर शेषांशके रचयिता वामन-प्रणीत ध्वन्यालोक लोननसे मिल घघर और श्मशान आदि पद भोति-सञ्चारके प्रधान सहा सकता है। वामनने उक्त ग्रंथमें उत्तरचरितके श्लोक उद्धृत यक हो गये हैं। किये हैं। आलाचना करनेसे मालूम होता है, कि वामन ७वीं __भवभूनिके काव्यमें दीर्घसमासका प्रयोग देख कर शताब्दीक शेपभागमें वा ८वीं सदीके प्रारम्भमें जीवित थे । कोई कोई प्रत्नतत्त्वविद् उन्हें वाणभट्ट, दण्डी आदि इन्दौर प्राप्त मालतीमाधवकी हस्तलिखित प्रतिके अङ्कों के के समयुगवत्ती समझते हैं। राजतरङ्गिणीके पढ़नेसे अन्तमें 'इतिकुमारिमशिष्यकृते', 'इति कुमारिलस्वामीप्रसादप्राप्त- मालूम होता है, कि कवि भवभूति कान्यकुब्जराज वाग्वैभव श्रीमदुम्वेकाचार्यविरचिते' और 'इति भवभ तिविरचिते' यशोवर्माकी सभामें विद्यमान थे। वाक्पतिराज- इत्यादि पाठ रहनेसे कोई कोई विद्वान् भवभ तिको कुमारिलका शिष्य समझते हैं। यह बात नितान्त अयौक्तिक नहीं जान पड़ती। कुमारिल-कृत सांख्यकारिका-भाष्य ५५७-५८३ ई.-
- ऐतिहासि एल्फिन्स्टानने इनकी श्मशान-वर्गानाको सर्व- .
के मध्य चीनी भाषामें अनुवादित हुआ था। भवभ तिके नाटकमें श्रेष्ठ समझा है :- जो नौद्धविरोध है, उससे प्रतिपन्न होता है कि वे कुमारिलके मता- "Among the most impressive descriptions नुमृत हुए थे। is one where his here repairsat milnight toa मानतीमाधवकी भमिकामें डा. भगडारकरने लिखा है, कि lickl of toms, scarcels lighted by the flames "पण्डितसमाजमें प्रवाद है, कि भवभति कालिदासके समसामयिक of the luneral psrestml evokes the lemons of थे।" यह प्रवाद इस प्रकार है,-भवभूतिने उत्तररामचरितकी the place whose apneurtiice lilling the air with रचना करके कालिदाससे उसके विषयमें उनका अभिमत पूछा shrill crics and uncurthly forms is paintel in था। कालिदासने उस समय चतुरङ्गकीड़ामें रत होनेसे, ग्रंथको dark and powerful colours, while the solithiles, उच्चस्वरसे पढ़ने के लिये कहा । आदयोपान्त श्रवगा कर कालिदास- the morning of the wind. the lieutsc sort of the brook, the wailing or and the longratun ने सन्तोपके साथ कहा कि ग्रंथ उत्तम है, परन्तु- howling of the jackals which succeed on the : "किमपि किमपि मन्द मन्दमासत्ति योगा- sudden disappearance of the spirits, almost ' दविरलितकपोलं जल्पतोरकूमेण । surpass in effect, the presence of their superna अशिथिलपरिरम्भव्यापृतकैकदोष्णो- tural terrors. रविदितगतयामा रात्रिरेबं व्यरंसीत् ॥” (उत्तर ६) + पाणभट्ट, मयूर आदि संवत्की पंचम शताब्दीके शेष भाग- "इस श्लोकके ४र्थ चरणमें एक शब्दमें एक अनुस्वार में विद्यमान थे। अधिक हो गया है।" उनके उपदेशानुसार भवभूतिने वहां पा "कविर्वाक्पतिराज श्रीभवभूत्यादि सेवितः । "रात्रिदेव व्यरसीत्" पाठ बना लिया। पर इस जरा-सी वात पर, जितो ययौ यशोवर्मा तद्गुणास्तुति बन्दिताम ||" जोकि असलमें प्रवाद है, भवभूतिको कालिदासका समसामयिक (राजतर ० ४।१४) नहीं कहा जा सकता ।