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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/७७१

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व्याप्त होने पर वे क्रमसे जनी राज (संत्रि० भव स्वरूभव-स्वरूप । नियुक्त हुए थे। यहां पर कविके जीवनका अकी च न ( ) संसारके बधनोंसे छुड़ानेवाला, समालतीत हुआ था। आपके उक्त जीनों ही नाटक भगवान्।। eles के अधिष्ठातृदेव कालप्रिय नायके समक्ष अभि) भवरुत् (सं० सी० ) भवे जन्मादिप्रदे संसारे रोनिति अनेनेति भवे सन्मान्ते रोदित्यनेनेति वा रुद-क्किप् । प्रेत- पटह, एक प्रकारका बाजा जो मृतककी अल्पोष्टयाके "असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः। । समय बजाया जाता है। तास्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्मनो जनाः ॥" भवर्ग ( स० पु. ) नक्षत्रवर्ग । (वाजसनेय उ०) भववामा ( स० स्त्री० ) शिवजीकी स्त्री, पार्वती। केवलमात्र उक्त श्लोकके शब्दार्थ पर लक्ष्य कर भवभूतिनं भवविलास (सं० पु० ) १ माया। २ संसारके सुख जो उसे अपने ग्रन्थमें समाविष्ट किया है। महर्षि शङ्कराचार्यने अपने ज्ञानके अन्धकारसे उदित होते हैं। वाजसनेयापनिषद्-भाष्यमें इसकी विवृति दी है जो इस प्रकार है- भवशर्मन् - मिथिलावासी एक पण्डित । इन्होंने मिथला- "अथ इदानीं अविद्वन्निन्दार्थोऽयं मन्त्र आरभ्यते । असूर्याः परमात्म- राज नृसिंहके मन्त्री गमदत्तके आदेशसे षोड़श महादान भावमद्वयमपेक्ष्य देवादयोऽपि अमुरास्तेषां च असूर्याः। नाम- पद्धति प्रणयन की। शब्देऽनर्थको निपातः । ते लोकाः कर्मफलानि लोक्यन्तेदुश्यभुज्यन्ते भवशूल ( सं० पु. ) सांसारिक दुःख और क्लश । इति जन्मानि। अन्धेन अदर्शनात्मकेन अज्ञानेन तमसा आवृता- । भवसम्भव (सं० त्रि०) सांसारिक, संसारमें होने- च्छादितास्तानस्थावरान्तान् पूत्य त्यक्ता इमं देहं अभिगच्छन्सि । वाला। यथाकर्म यथाश्रु तम् । ये के चात्महनः । आत्मनं मन्तीति आत्म-: भवसार गुजरातवासा निकृष्ट जातिविशेष । वस्त्रादि हनः। के ते ये अविद्वांसः। कथं ते आत्मानं नित्यं हिंसन्ति ।' रंगाना इनका जातीय व्यवसाय है। अविद्यादोषेण विद्यमानस्य आत्मनस्तिरस्करणात् । विद्यमानस्य भवस्वामी-१ कल्पविवरणके प्रणेता। २ बौधायन श्रौत- आत्मनो यत् कार्य फलं अजरामरत्वादिसवेदनादिलक्षण तत् सूत्रके भाष्य, अग्निष्टोमप्रयोग; बौधायनचातुर्मास्यसूत्र- तस्यैव तिरोभ तं भवतीति प्राकृता अविद्वामी जना आत्महन: भाष्य और वौधायनदर्शपूर्णमास प्रभृति ग्रन्थोंके प्रणेता। उच्यते । तेन हि आत्महननदोपेण संसरन्ति ते । "(शाङ्करभाष्य ३) केशवकृत् प्रयोगसारमें इनका मत उद्ध त हुआ है। भवभ ति और शंकरकी व्याग्न्यामें वैषम्य देख कर कोई भवसृक (सं० पु०) १ विश्व ब्रह्माण्डके सृष्टिकर्ता, ब्रह्मा । अनुमान करते है कि उत्तरचरितकी रचनाके समय उक्त उपनिषद- . २ विष्णु। का शांकरभाष्य नहीं था। शंकरकी अभिनव एवं मनोरम व्याख्या भवाँ ( हि० स्त्री० भक्कर, भौरी। मिलने पर भवभ ति कभी भी उक्त उपनिषद-वाक्यके आक्षरिक भवाना (हिं० कि० ) घमाना, फिराना। अर्थको ग्रहण नहीं करते। भवभ ति शंकराचार्य के पूर्ववर्ती थे, : इस बातको बहुतसे विद्वान स्वीकार करते हैं । वर्तमान अनुसन्धान बानरामायण, कथासरित्सागर, रघुवंश (६३४ ) और मेघदूत से प्रमाणित होता है कि शंकराचार्य ईसाकी ६ठी शताब्दीके निकट-1 (१९३५) आदि ग्रंथों में उजयिनी नगरीमें प्रतिष्ठित शिवमूर्तिका वर्ती किसी समयमें विद्यमान थे। इसलिए उनका शंकराचार्य के ही महाकालनाथ, महाकाल-निकेतन, महाकालवपु आदि नामसे परवर्तित्वका मानना किसी प्रकार असमीचीन नहीं मालूम होता। उल्लेख किया गया है। भवभ ति जिस समय उजयिनी-राज-

  • भवभूति द्वारा प्रकटित कालप्रियनाथ कौन-सी देवमूर्ति सभाके पण्डित थे, तब सम्भवतः वे उजयिनीके अधिष्ठातृदेवका

हैं और वह कहां प्रतिष्ठित थीं, इसका विशेष विवरया कुछ नहीं कालपियनाथ नामसे सम्बोधन करते होंगे। उजयिनी नगरीकी मिलता। खर्गीय ईश्वरचन्द्र विद्यासागरने जगद्धरके मतानु- शिप्रा नदीके पूर्वतीरस्थ पिशाच-मुक्तेश्वर घाटके पूर्व-दक्षिणांशमें सरण कर उन्हें पद्मनगरस्थ देवमूर्ति विशेष बतलाया है। परन्तु महाकालका बड़ा भारी मन्दिर अब भी विद्यमान है। Vol. xv, 192