पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१०८

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१०२ अगस्त्य-अगहनिया पथ चलनेसे ही अगस्त्यभ्राताका महा श्रीमान् आश्रम असन्तुष्ट हुए। किन्तु अन्तमें बड़े यत्नसे इन्होंने देख पड़ेगा। इन्द्रको मना लिया। अथर्ववेद में इनके गुण और वाल्मोकिने यह न बताया, कि अगस्त्यके भाई कौन तपको बड़ो प्रशंसा लिखो है। थे। किन्तु स्वामिकत टीकामें लिखा गया है, कि अगस्त्यकूट (सं० पु०) दक्षिणका वह पर्वत, जिससे ताम्रपर्णी नदी बही है। उनका नाम इवाह था। यथा- "तवागन्यधावाश्री इभवाहति अस्य नाम । अगस्त्यः प्राग्टुहितरमुपयेमे अगस्त्यगौता (सं० स्त्री०) अगस्त्येन गीता विद्या। धृतवताबामस्वां दृढव्रतो जात प्रवाहात्मजमुनिरिति भागवतं तु देवराञ्च शान्तिपर्वमें लिखौ अगस्त्योक्त विद्या। मुतोत्पत्तिरिति न्यावनत्य के।" अगस्त्यचार (सं० स्त्री०) अगस्त्यस्य चारः । १ अगस्त्य अगस्त्यमुनिका आश्रम भी एक स्थानमें न था। नक्षत्रको शुभाशुभ फलसूचक दक्षिणदिक्को गति। सुतीक्षणमुनिने रामको जिस प्रकारसे पथ बताया, २ अगस्त्यनक्षत्रका उदय। उसके अनुसारसे दण्डकारण्यमें उनका आश्रम होना अगस्त्यसंहिता (सं० स्त्री०) अगस्त्य न लिखिता चाहिये । दण्डकारण्य गोदावरौके उत्तर-कूलमें, आधु संहिता । सम् सम्यक् हितं मङ्गलं प्रतिपाद्यं यस्याम् । निक बरारको पूर्व-उत्तर-सीमा है। महाभारतके मत सम्-धा-त । अगस्त्यमुनिका रचित शास्त्र विशेष । से अगस्त्याश्रम गयाके निकटमें था। वन ९७-९६ अ० देखो। अगस्त्यहरी (हिं० स्त्री०) अगर रोतको । कास, श्वास, इन मुनिका असाधारण तपोबल है। इन्होंने देवता और अजीर्णको एक औषधि । ओंके अनुरोधसे सागरको शोषण किया, इल्वल और अगस्त्योदय (सं० पु०) नक्षत्ररूपण दक्षिणस्यां दिशि वातापि असुरको नष्ट कर डाला। विन्ध्याचलने सूर्य अगस्त्यस्य उदयः । दक्षिणदिक्में अगस्त्यनक्षत्रका पथको रोध करनेके लिये संकल्प किया था, इन्होंने (Canopus) उदय। सौर भाद्रमासके सत्रहवें दिवसमें उस पर्वतके दर्पको चूर्ण कर डाला। दण्डकारण्य अगस्त्यका उदय होता है। भाद्र मासके तीन दिन वाले अपने आश्रममें पहुंचनेपर महर्षिने रामको बाकी रहनेसे ब्राह्मण अगस्त्यनक्षत्र और उनकी पत्नी वैष्णवधनु, ब्रह्मदत्त शर, अक्षय तूणीर और खङ्ग लोपामुद्राको अयं देते हैं। पहले शङ्खके भीतर जल, दिया था। किन्तु इतना प्रताप होते भी अगस्त्यमुनि श्वेतपुष्प और आतप तण्डुल डाल और दक्षिणमुख नहुषराजको पालको लिये-लिये घूमते थे। एक बैठकर यह मन्त्र पढ़ना चाहिये- दिन महाराज शिविका पर बेठे जा रहे थे, हठात् "काशपुष्पप्रतौकाश अग्रिमारुतसम्भव । उनका पैर महर्षिके शरीरसे छू गया। इसी अपराध मिवावरुणयो: पुव कुम्भयोने नमोऽस्तु ते ॥" पर अगस्त्यने नहुषराजको सर्प बना दिया। आतापिक्षितो येन वातापिञ्च महासुरः। समुद्र: शोषितो येन स मेऽगस्त्यः प्रसीदतु"। महाभारत वनपर्व देखो। लोपामुद्राका अर्घ्यदानमन्त्र- विन्ध्यगिरिका दर्पहरण करनेके बाद अगस्त्यमुनि "लोपामुद्र महाभारी राजपुवि पतिव्रते। ने दाक्षिणात्यमें जा अवस्थिति को थौ। द्राविड़ादि रहाणायं मया दत्त मिवावरूशिवल्लभे ॥" अञ्चलोंके अधिवासियोंने उनसे नाना प्रकारका अगह (हिं० वि०) १ जो लिया न जा सके। २ चुल- विद्याध्ययन किया। युरोपीय पण्डित अनुमान करते बुला। ३ वर्णनातीत । ४ कठिन । हैं, कि अगस्त्य तिब्बत देशके मनुष्य थे। यह महर्षि अगहन (हि. पु०) अग्रहायण । वेदको पुरानो चालसे आजकल नक्षत्ररूपसे आकाशके दक्षिणदिक्में अव वर्षका पहिला, किन्तु आधुनिकसे नवां महीना। स्थिति करते हैं। मार्गशीर्ष अगस्त्यने एकबार इन्द्रको निकाल मरुत्को हो अगहनिया (हि० वि०) अग्रहायणी। मार्गशीर्ष में उत्पुत्र इविः देनेका विचार किया था, जिससे इन्द्र बहुत होनेवाला । अगहनका।