पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२३३

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अण-अणौमाण्डव्य २२७

कील। अण, अणक (सं० त्रि०) अण-अच्, अणति यथेच्छ अणी (हिं. अव्य०) ओजी, एजी, ऐजी; अरी, नदति। पापाणके कुत्सितः। पा २।१५४ा १ अधम, ओरी, एरी। अणि देखो। कुत्सित ; जलौल, मकरूह । २ बक्की, बड़-बड़िया। अणीमाण्डव्य (सं० पु.) 'अणी शूलाग्र' तद्युक्तो माण्डव्यः' (इति अणकीय (सं० त्रि.) छोटेसे सम्बन्ध रखनेवाला। महाभारतटीकायां नीलकण्ठः) एक मुनि । अणद (हिं पु०) आनन्द, खु.शौ । विदुरके जन्मवृत्तान्तमें लिखा है, कि माण्डव्य अणव्य (सं• क्लो०) अणु-यत्, अणोः सूक्ष्मशस्योत् नामक जनैक मुनि किसी वृक्षतलमें तपस्या करते पादक क्षेत्रम्। अणुधान्योत्पादक क्षेत्र, वह खेत थे। एक दिन कई-एक चोर अपहृत द्रव्य ले जिसमें छोटी-छोटी चीजे पैदा हों। इनके आश्रमके भीतर आ विप। नगरके रक्षकोंने अणसङ्क (हिं० वि०) निःशङ्क, बेखौफ । सन्धान लगाते-लगाते उसी स्थानमें पहुंचकर देखा, अणादीक्षित–चातुर्मास्यप्रयोग, हौत्रप्रयोग प्रभृति कि चोर कुटीमें छिपे थे। रक्षकगण अपहृत धन, ग्रन्थप्रणेता। चोरों और मुनिको भी तस्कर समझ राजसभामें अणायाचार्य-रामानुजविजय नामक ग्रन्थरचयिता। ले गये। उस समय न्यायपरायणता और धर्मभय इनका दूसरा नाम सत्यधर्मतीर्थ था। सन् १८३१ अधिक था, चोर कहनेसे ही मनुष्य चोर समझा ई० में इनको मृत्यु हुई। जाता था,-विचार करनेका कोई झगड़ा-झञ्झट 'अणास (हि. स्त्री.) अण्डस, मुश्किल । न था, चोरको पहुंचते ही शूलो चढ़ानेको अणि (सं० पु०-स्त्री०) अण-इन्, अणति नदति । आज्ञा दी जाती थी। राजाके सहिचारसे माण्डव्य १ रथचक्रानस्थित कोलक, रथवाले पहियेके आगको चोरोंके साथ चोर बन शूलो चढ़े। चोर तो मरे, २ अथि, आरा। ३ सूच्यादिका अग्रभाग, किन्तु माण्डव्यका कठिन प्राण न निकला। अन्तमें सूई वगैरहको नोक। ४ सीमा, सरहद। राजा अनेक अनुनय-विनय द्वारा मुनिको तुष्टकर “अणिराणिवदक्षायकोलात्रि सौमसु योः ।" (मेदिनो) शूली छुड़ाने पहुंचे। किन्तु शूली न छूटी, मुनिके अणिमन्, अणिमा (सं० पु०) अणोर्भाव:, अणु शरीरमें विद्ध हो गई थी। इसीसे इसके सिवा कोई इमनिच् । १ अणुत्व, सूक्ष्म परिमाण, सूक्ष्मता। दूसरा उपाय न था, कि शरीरके भीतर जो बारीकी, जरी होने की स्थिति । २ अष्ट प्रकार ऐश्वर्यो शूलीका अंश प्रविष्ट हुआ था, वह जहांका तहां के मध्य ऐश्वर्य-विशेष, आठ तरहको सिद्धियों में वह रहता और बाहरका अंश काट डाला जाता। ऐसा सिद्धि, जिसके प्रभावसे छोटेसे भी छोटा रूप रखा ही किया भी गया। किन्तु मुनि तो तपस्याके सिवा जा सकता है। अष्टविध एखयोंके यह नाम हैं, और कुछ जानते न थे, इनपर ऐसी विपद क्यों "अणिमा लधिमा प्राप्ति: प्राकाम्य' महिमा जथा। पड़ी! उपरोक्त विषय जाननेके लिये माण्डव्य ईशित्वञ्च वशित्वञ्च तथा कामावसायिता ॥" मुनिने धर्मराजसे सब बातें जाकर पूछौं। धर्मराजने अर्थात् १ अणिमा, २ लघिमा, ३ प्राप्ति, प्राकाम्य, कहा,-"आप जब लड़के थे, तब आपने पतङ्गके ५ महिमा, ६ ईशित्व, ७ वशित्व, ८ कामवसायिता शरीरमें तिनका घुसेड़ दिया था ; इससे आपको यही अष्ट सिद्धि कहलाती हैं। इसतरह शास्ति की गई है।" माण्डव्यने क्रुद्ध होकर अणिमादिक (सं० पु०) अणिमा प्रभृति, अणिमा कहा,-"उस समय मैं अज्ञान शिशु था। आपने वगैरह आठ सिद्धियां । अल्प अपराध पर मुझे गुरुदण्ड दिया है; इसलिये अणियाली (हिं. स्त्री०) १ कटारी। २ बर्की । आप शूद्रयोनिमें जाकर जन्मको ग्रहण कौजिये। अणिष्ठ (सं० त्रि०) अतिशयन, अणु-इष्ठन्। अति आजसे मैं यह नियम बनाता है, कि चतुर्दश वत्सर शय सूक्ष्म, निहायत बारीक । वयःक्रम न होनेसे बालकोंको कोई पाप न लगेगा।"