पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२७९

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अतिसार २७३ धनिया, सोंठ, नागरमोथा, नेत्रबाला, सुखाये हुए कुटको यह समस्त द्रव्य बराबर-बराबर ले अच्छी बेलकी गिरी-यह समस्त मिलित औषध दो तोले तरह पौस डाले। इस चूर्णका अनुपान चावल-धुला आधसेर जलमें पकाये और आधपाव रह जानेपर और मधु है। इससे ग्रहणी, मलमें उतार ले। पीछे तीन मासे शहद डालकर इस रक्तके विन्दु निकलना और पित्तदोष प्रभृति रोग काढ़ेको सेवन करे। इसका नाम धान्यपञ्चक है। नष्ट होते हैं। पैत्तिकातिसारमें सोंठको छोड़ बाकी चार ही चीज़ोंसे वृहदगङ्गाधरचूर्ण-बेलसोंठ, सिंघाड़े और अनारके काढ़ा तय्यार करे। इसका नाम धान्यचतुष्क पत्ते, अतौस, नागरमोथा, शालवृक्षका सफेद यह काढ़े पेटको मरोड़ और वद्ध आमको नष्ट बुरादा, धायके फूल, कालीमिर्च, पीपल, सोंठ, करते हैं। दारुहलदी, चिरायता, नौम, जामनका बकला, अजवायन, लवङ्ग, नागरमोथा और पित्तपापड़ा रसाञ्जन, इन्द्रयव, आकनादि, वराक्रान्ता, बाला, एक-एक तोले ले आध सेर पानीमें अल्प सिद्ध करे। मोचरस, सिद्धिपत्र, भृङ्गराज-यह सब चीजें बराबर- इस औषधका जल बीच-बीचमें पिलानेसे उदरकी बराबर और सबके बराबर इन्द्रयवके मूलका बकला वेदना और आम नष्ट होता है। अच्छी तरह पीस कर चूर्ण बनाये। इसकी मात्रा चिकित्साको प्रथमावस्था में ही यह निश्चित एक माशे है। इसे बकरीके दूध, शहद या चावलवाले करना कर्त्तव्य है, कि पेटमें कृमि हैं या नहीं। मांडके साथ खाना चाहिये। ग्रहणीके साथ ज्वर, क्योंकि कृमि रहनेसे, पहले उनका प्रतीकार होना मलका नाना प्रकार वर्ण, पाण्डुरोग प्रभृति होनेसे चाहिये। कृमि निर्गत न होनेपर अमृत भक्षणसे यह औषध बड़ा उपकार करता है। भी आरोग्य प्राप्त करनेको सम्भावना नहीं। जौरकादिचूर्ण-जौरा, फुलाया हुआ सुहागा, नागर- सर्वत्र कृमिक लक्षण स्पष्ट रूपसे प्रकाशित नहीं मोथा, आकनादि, बेलसोंठ, धनिया, बाला, पित्त- होते। किन्तु अनेक स्थलोंमें ही यह कई एक पापड़ा, अनारके फलका और इन्द्रयवके मूलका बकला, उपसर्ग प्रायः विद्यमान रहते हैं,-मलहारका वराक्रान्ता, धायके फूल, त्रिकटु-सोंठ, मिचे, पोपल, सुरसुराना, मुखसे खारा पानी निकलना और दालचीनी, तेजपात, छोटी इलायची, मोचरस, इन्द्रयव, दुर्गन्ध आना, नाक बहना, रातको सुनिद्रा न अभ्र, गन्धक, पारद, इन सब चीजोंका चूर्ण बराबर- पड़ना, और सो जानेसे दांत पौसना। यह सकल बराबर और सबके बराबर जायफल ले अच्छी तरह लक्षण वर्तमान होनेसे अन्त में कृमि रहनेको पौस डाले। इस चूर्ण का अनुपान मधु है। इसे सेवन सम्भावना है। विडङ्ग, पलाश-पापड़ा, अनरसके करनेसे उत्कट ग्रहणी रोग छूट जाता है। पत्तेका रस और इन्द्रयव कृमियोंके उत्कृष्ट औषध नौचे इस रोगके दूसरे औषध भी लिखे जाते हैं- इनमें कोई भी एक औषध सेवन करानेसे ग्रहणी-मिहिर-तैल-चार सेर तिलके तेलको पहले पेटके कृमि निर्गत हो सकते हैं। विधिपूर्वक मूर्च्छित कर ले। तैल मूर्छित करनेकी प्रक्रिया रोगीके उदरका वद्धमल और दुष्टरस निर्गत होने मूर्छा शब्दमें देखो। फिर कल्कद्रव्य-धनिया, धायक तथा शरीर शुष्क और दुर्बल हो जानेसे अल्प-अल्प लोधकाष्ठ, वराक्रान्ता, अतीस, हर, खसकी जड़, लघुपथ्य और धारक औषधको व्यवस्था करे। ऐसी नागरमोथा, नेत्रबाला, मोचरस, रसोत (दारुहलदीका अवस्थामें नीचे लिखे चूर्णो से कोई एक चूर्ण खिलाया सत), बेलगिरी, नीलोत्पल, तेजपात, नागेश्वर, जा सकता है,- पद्मकेशर, गुर्च, इन्द्रयव, श्यामालता, पद्मकाष्ठ, कुटकी, नागरादिचूर्ण-सौंठ, अतीस, नागरमोथा, धाय तगरपादुका, जटामांसी, दालचीनी,कसेरू, पुनर्नवा तथा फल, इन्द्रयवका बकला, इन्द्रयव, पाठा, बेलगिरी, आम, जामुन, कदम्ब और इन्द्रयवका बकला, अजवायन,