पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अतिसार २७५ पुरातन पोर्टको प्रत्यह तीन-चार बार पान करे। कष्टकर है, इससे अत्यन्त वर्षा होनेपर वह सिवा इसके मांसका शोरबा, एक भाग चूनेवाले कुटीरमें बैठ और उसो शुष्क मांसको दग्धकर सड़ी जलके साथ नौ भाग बकरीका दूध मिलाकर ले। हुई शराबके साथ खाते हैं। फिर किसी-किसी वनमें पहलेसे पेटमें दुःसह वेदना एवं मट्ठी-जैसा मल वर्षाके समय चारो दिक् पानी में डूब जाते और निर्गत होनेपर पारदका व्यवहार करना उचित है। हरिण तथा शशक उच्च भूमिपर जाकर आश्रय हाइडार्ज कम क्रिटा १, विसमथ ३, इपिकाक १ लेते हैं। असभ्य लोग उस समय उन्हें अनायास वध और सुगन्ध खड़िया १० रत्ती-इन सब चौजोंको करते हैं। वर्षाकालमें आकाश प्रायः मेघोसे आच्छन एकमें मिलाके एक पुड़िया बनाये। रातको ऐसी ही रहता है, इसी कारणसे मांस सुखानेकी सुविधा नहीं दो पुड़ियोंको सेवन करना चाहिये। पौड़ा पुरातना होती। सुतरां, कितने ही वनवासी अधिक शिकार वस्थामें पहुंचनेसे अल्प-अल्प अनुत्तेजक एवं लौहघटित मारनेसे मांसमें हलदी और नमक लगा और अल्प औषध देना आवश्यक है। दग्धकर रख लेते हैं। इसतरह कुखाद्य भोजनके अफोमका अरिष्ट ७ बूंद, फेरम टारट्रेटम ३ ग्रेन कारणसे ही उनका रक्तामाशय रोग इतना प्रबल और दालचीनीका जल आध छटांक-यह सब द्रव्य देख पड़ता है। युरोपके लोग भारतवर्षमें आके एकत्र मिश्रित कर ऐसी ही एक-एक मात्रा औषध पहले यहांके जलवायुपर विशेष दृष्टि नहीं डालते। प्रत्यह तीन बार सेवन करे। जीर्ण उदरामय रोगमें वह विलायतमें जिस परिमाणसे मांसादि भोजन हमारे देशका बेल एक महौषध समझा जाता है। करते, यहां भी उसी परिमाणसे अपर्याप्त आहार भीतर प्रचुर गूदा उत्पन्न हो जानेसे, बेलको वीज करते रहते ; इसी कारणसे अन्तमें उत्कट आमाशय सहित गोल-गोल टुकड़े कर छायामें सुखाये । प्रभृति रोग उत्पन्न हो जाते हैं। Madras Hygiene ८ भाग बेल और १ भाग सोंठ एकत्र जलमें सिद्ध कर देखो। (उबाल ) उत्तम रूपसे घोंट डाले। फिर इसी रक्तातिसारके अन्यान्य कितने हो कारण श्लेष्माति- मांडको कपड़ेसे छान थोड़ेसे खजूरवाले गुड़के साथ सार जैसे हैं। युरोपीय चिकित्सक ऐसा अनुमान रोगीको खिलाये। सिवा इसके ताज़ा बेल भूनकर करते हैं, कि दुर्गन्ध स्थान किंवा अन्य किसी खजूर-गुड़के साथ खानेसे भी उपकार होता है। कारणसे एक प्रकारका विष उत्पन्न होता है। वही - रक्तातिसार या रक्तामाशय-पूर्वकालमें पोड़ा विष मनुष्य के शरीरमें प्रविष्ट हो जाता है। पीछे वही पृथिवीपर सर्वत्र ही अधिक विद्यमान थी। इस विष बृहत् अन्त्रवाली श्लैष्मिक झिल्लोको ग्रन्थिसे समय भी वनवासी एवं असभ्य लोग इस व्याधिसे शरीरके बाहर निकलता, जिससे रक्तामाशय रोग अत्यन्त कष्ट पाते हैं। वह ज्वर या अन्य किसी उत्पन्न होता है। रोगसे अधिक नहीं डरते ; किन्तु रक्तामाशयसे सभी हिन्दुस्थानमें जहां मलेरिया ज्वरका अत्यन्त भयभीत हो जाते हैं। स्थूल रीतिमें हिसाब लगानेपर, प्रादुर्भाव देख पड़ता, रक्तामाशय रोग वहीं अधिक सैकड़े पीछे अस्मी असभ्य लोग रक्तामाशयसे प्राणत्याग हुआ करता है। पहले अल्प-अल्प शोतका बोध करते हैं। इसीसे स्पष्ट समझ पड़ता, कि गलित और होता, कहीं-कहीं प्रबल कम्प भी देख पड़ता है। शुष्क मत्स्य-मांसका भोजन और अपरिमित सुरापान आहारके बाद पीड़ाका सूत्रपात होनेसे अनेक इस रोगका प्रधान कारण है। एक जातीय ऐसे स्थलोंमें रोगी वमन कर डालता है। इस अवस्थामें पर्वतवासी लोग हैं, जो शीतकालमें वानर, हरिण जिह्वा शुष्क, मध्यस्थल खेतवर्ण लेपयुक्त और चारों प्रभृति वन्य पशुओंको मार उनका मांस सुखाकर किनार रक्तवर्ण हो जाते हैं। किसौ किसी स्थलमें रख छोड़ते हैं। वृष्टिके समय शिकार मारना रोगीको कम्प या ज्वरका बोध नहीं होता। किन्तु