पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४०४

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अनन्तरित-अनन्तव्रत क क ख क ख क ख क +खर क क + + क नाम। यहां भागके फलमें ६ अनन्तराशि है, जो किसीतरह अनन्तवात (सं० पु०) शिरोरोग-विशेष, एक सरको पूरी नही होती,- बीमारी। इसका लक्षण यह है,- ख+१ ) +- "दोषास्तु दृष्टास्वय एव मन्यां स पौद्यघाटामु रुजां सुतीनां । क कुर्वन्ति योऽतिम वि शहदेश स्थिति' करोन्याय विशेषतस्तु । गाव पाश्चे तु करोति कम्प' हनुग्रह लोचनजाँच रोगान् । अनन्तवातं तमुदाहरन्ति दोषवयीत्य शिरसी विकारम् ॥” (माधव नि०) क खर 'सन्निपातकै दोषसे शिरमें जो भयानक वेदना उत्पन्न होती, जिससे नेत्र, धूयुगल जला करता और गण्ड कंपने लगता है, उसे अनन्तवात कहते हैं।' खर अनन्तविक्रमिन् (सं० पु.) किसी बोधिसत्त्वका इत्यादि। ख२ अनन्तविजय (सं० पु०) अनन्तान् अशेषजनान् यहां भागफल अनन्तराशि है। विजयते अनन्तानां विजयो वा, उप-सः । युधिष्ठिरका अनन्तरित (स.त्रि.) किसी व्यवधानसे पृथक् न शङ्ख। युद्धके समय इस शङ्खको बजानेसे प्रतिपक्षीय किया गया, अभङ्ग; जो किसी रोकसे अलग न किया योद्धा हार जाते थे। गया हो, समूचा। अनन्तवीर्य (सं० पु०) अनन्तं असौमं वीर्य यस्य, अनन्तरीय (सत्रि०) निकटस्थ आत्मीयसे सम्बन्ध बहुव्री०। १ जिन-विशेष, जो आगे आनेवाले तेईसवें रखनेवाला, नज़दीकी रिश्तेदारसे जो ताल्लुक रखे । अर्हत् होंगे । २ विष्णु । (वि.)३ असीमशक्तिशाली, अनन्तरूप (सं० पु०) अनन्तानि असंख्यानि वेहद ताकत रखनेवाला। रूपाणि यस्य, बहुव्री। १ परमेश्वर, विष्णु । (त्रि०) अनन्तव्रत (सं० लो०) अनन्तस्य विष्णोव्रतं उपा- २ असंख्य रूप रखनेवाला, जिसकी शकलोंका कोई सनार्थ नियमः। भाद्रमासको शुक्लचतुर्दशीको किया शुमार न हो। जानेवाला इसी नामका व्रत-विशेष। भविष्यपुराणमें अनन्तर्गर्मिन् ( स० पु.) अनन्तर्गर्भो अस्तास्य, लिखा है,- अस्तार्थे इनि ; नञ्-तत्। अन्तर्गर्भरहित, पवित्रीका कुश । जिस कुशको नोक तोड़ दी जाती और जो पवित्र "अनन्तव्रतमेतडि सर्वपापहरं शुभम् । करनेके काम आता, उसे अनन्तर्गर्भिन् कहते हैं,- सर्वकामप्रद' नृणां स्त्रीणाञ्च व युधिष्ठिर॥ तथा शुक्लचतुर्दश्यां मासि भाद्रपद तथा । "अनन्तभि साय कौशहिदलमेव च।" (छन्दोगपरिशिष्ट) तस्वानुष्ठानमावण सर्व पापं प्रणश्यति ॥ अनन्तहित (सं० त्रि०) १ गुप्त नहीं, प्रकट ; न छिपा कृत्वा दर्भमयानन्तं वारिधान्य' निवेश्य च । हुआ, जाहिर। २ व्यवधानसे अभिन्न, जिसमें कोई पूजयेदगन्धपुष्पाद्यै नैं वेधैर्विविधैरपि ॥ रोक नहीं। चतुर्द शफलम लैज लज रपि भक्तितः । यवगोधूमशालौनां वर्णनकतमस्य च ॥ अनन्तवत् (सं० त्रि०) १ सदाका, हमेशावाला। कृत्वापूपदयं तस्मै दद्यादकं घृतान्वितम् । २ अन्तशून्यसदृश । (पु.)३ ब्रह्माके पृथ्वी, आकाश, खयमैकन्तु भुञ्जीत कर बध्वा सुडोरकम् ॥ वर्ग और समुद्र-इन चार चरणों में एक चरण । चतुर्दशग्रन्थियुक्त' कुडुमैन विलेपयेत् । अनन्तवर्मन् महाराज–१ मन्द्राज-गञ्जाम-कलिङ्गपटम्के सुविन्यस्त' विषनाम प्रतिग्रन्थि समन्वितम् । एक नृपतिका नाम। २ उत्कलाधिप चोड़गङ्गका चतुर्दश ग्रन्थिमय सूत्र कासिमेव च ॥" मूल नाम। चोड़गङ्गा और गङ्गवंश देखी। "सकल पापका हरणकारी यह शुभ अनन्त-व्रत 100